आदिवासी लोककथा पुरखा साहित्य -आदिवासी लोक कथाओं में लोक विश्वास – भारत में अनेक आदिवासी जातियां अपनी मौलिक मान्यताओं, रीति-रिवाज के साथ जीवनयापन कर रही हैं।
इन जातियों के पास अपना प्रचलित वाचिक लोक साहित्य है। जिन में उनकी संस्कृति, सामाजिक संरचना, मान्यताएं, रीतिरिवाज, विश्वास सहज रूप में देखने को मिलती हैं।
आज हम आपको ऐसी चार आदिवासी लोककथाएं बताएंगे जिन्हें आदिवासी लोककथा पुरखा साहित्य कहते हैं।
आदिवासी लोककथा पुरखा साहित्य
1- माड़िया जनजाति में प्रचलित आदिवासी लोककथा पुरखा साहित्य
बहुत पुराने जमाने की बात है, एक पुरा नायक एक ऐसी वस्तु की खोज में निकला, जिसके द्वारा वह अपने मेहमानों का आदर सतकार कर सके।
वह चलते-चलते एक महुवा के वृक्ष के पास पहुंचा। उसने देखा कि उस वृक्ष के नीचे एक गड्ढा बना हुआ है। जिसमें पानी भरा हुआ है और महुए के फूल झर कर उस पानी में गिर रहे हैं।
उसमें पहले से भी बहुत से फूल विद्यमान थे, जो पहले झरे होगे। उस गड्ढे के चारों ओर सभी चिड़ियाए बैठी थी और उत्तेजित होकर अपने पंख फड़फड़ा रही थी।
उस पुरा नायक ने भी उस गड्ढे का पानी चखा और वह भी कुछ देर पश्चात् पक्षियों की भांति ही नाचने गाने और भुजाओं को फड़फड़ाने लगा ।
इस प्रकार उस पुरा नायक को अपने मेहमानों की खातिरदारी करने हेतु एक विलक्षण पेय पदार्थ मिल गया। तब से माड़ियाजन महुए की शराब बनाने लगे। उनके मतानुसार यह मद्य ईश्वरीय देन है।
2- माड़िया जनजाति में प्रचलित आदिवासी लोककथा पुरखा साहित्य
बहुत दिन हुए कुछ माड़िया युवक बेलाडिला पहाड़ पर शिकार खेलने गए। उन्हें बहुत प्यास लगी तो वे पानी की तलाश करने लगे।
एक चूहे ने सल्फी वृक्ष के फूलों के नीचे वाले डंठल को कुतर दिया था, और एक जंगली मुर्गे ने उस वृक्ष की जड़ के पास के स्थान को खोदकर उसमें एक गड्ढा बना दिया था।
वृक्ष के डंठल से टपकने वाला रस इस गड्ढे में गिरता था जिससे वह भर गया था। जब वे शिकारी वहां पहुंचे तो उन्होंने वृक्ष का रस उसमें भरा हुआ पाया और उसने अपनी प्यास बुझाई।
इस प्रकार उन्होंने सल्फी ताड़ी का रस निकालना सीखा। तभी से सल्फी एवं ताड़ी माड़ियों के प्रिय पेय पदार्थ हो गए।
3- माड़िया जनजाति में प्रचलित आदिवासी लोककथा पुरखा साहित्य
बहुत पुरानी बात है जब पेण्ड्रा वन में एक गोड़ रहता था। उसकी एक बेटी थी। जिसका नाम मिटकोबाई था। उसने मिटकों के लिए एक लमसेना खोज लिया और उसको अपने घर में ले आया।
उस युवक का नाम झिटकु था। झिटकु और मिटकु दोनों आपस में एक दूसरे को बहुत प्यार करते थे।मिटकु के पिता का एक लम्बा मुण्डा (तालाब) था। जिससे वह अपने खेतों की सिंचाई करता था।
कुछ वर्षों से सूखा पड़ने के कारण उस तालाब का पानी सूख गया था। जब अषाढ़ लगा तो मूसलाधार वर्षा होने लगी। मिटक के पिता ने वर्षा पूर्व ही तालाब की मेढ़ों की मरम्मत की थी।
वर्षा इतनी तेज थी कि तालाब लबालब भर गया और बारिश थमने का नाम ही ले रही थी। मिटळू का पिता संध्या समय घर आया और उसने चुपचाप झिटकू को तालाब की नई पार की रक्षा के लिए भेज दिया।
सारी रात मूसलाधार वर्षा होती रही।
आखिर रात्रि में नदी कट कर बहने लगी। झिटकू मिट्टी खोदकर उस पर डालता रहा। कभी वह पत्थर लाकर वहाँ जमाता तो कभी वृक्ष की लकड़ी काटकर।
परन्तु तटबंध कटता ही जा रहा था। आखिर पानी का एक जोर का प्रवाह आया और तटबंध टूट गया। झिटकू को जब कोई उपाय नहीं सूझा तो वह टूटे हुए तटबंध के स्थान पर जाकर स्वयं लेट गया।
पानी ने तटबंध को पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया और झिटकू मिट्टी के नीचे दब गया और उसकी मृत्यु हो गई। उसका शव रात भर वर्षा में वहीं मिट्टी के नीचे दबा पड़ा रहा।
दूसरे दिन जब वर्षा रुकी
और मिटकू को झिटकू, कहीं नजर नहीं आया। तब उसने अपने पिता से अपने पति के बारे में पूछा। उसके पिता का मन भी किसी दुःखद घटना से आशंकित था।
अतः उसने कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया। मिटळू को आशंका हुई और वह अपने पति की खोज में निकल पड़ी। उसके हाथ में उसकी एक टोकरी (गप्पा) थी। वह उसे खोजती हुई अपने खेत की ओर गई।
वहाँ उसे अपने पति का फावड़ा दिखाई पड़ा। वह फावड़े को उठाकर मुण्डा की ओर गई वो उसे मिट्टी में दबे हुए झिटकू के पटके का कुछ हिस्सा दिखाई पड़ा।
उसने जब मिट्टी हटाई तो उसके नीचे से उसके पति का शव निकत आया। उसे अपने पिता की कुटिलता और निर्दयता पर बहुत क्षोभ हुआ और उसने भी वहीं एक वृक्ष पर लटककर फांसी लगा ली।
यह कथा झिटकू मिटळू की कथा के नाम से प्रसिद्ध है। बस्तर में घड़वा जाति के शिल्पी झिटकू मिटकू की मूर्ति बनाते हैं, जिन्हें ग्रामीण देवता रूप में आराध्य मानते हैं।
मिटकु चूंकि माझी की बेटी थी और उसके हाथ में गप्पा था। अत: इस कथा को गप्पा गोसाइन भी कहते हैं। कथा का स्थल पेण्ड्रावन ग्राम को माना जाता है। इसलिए मिटकू की कथा को पेण्ड्रा वनिन भी कहते हैं।
4- माड़िया जनजाति में प्रचलित लोककथा पुरखा साहित्य
किसी जमाने में पार रियासत पर सोलंकी राजाओं का शासन था। एक बार की घटना है कि यहां के तीन राजकुमार भोजन करने बैठे यो वहाँ एक भूखा कुत्ता आ गया।
उन दिनों संपूर्ण धार में अकाल की स्थिति थी। फिर भी राजकुमारों के भोजन हेतु थोड़ी-बहुत खाद्य सामग्री उपलब्ध थी।
कुत्ते को वहाँ देखकर एक राजकुमार कुपित हो उठा और उसे भगाने लगा। परन्तु कुत्ता था कि भागने का नाम ही नहीं लेता था।
जब तक उसे रोटी का एक आध टुकड़ा नहीं मिलता, वह वहीं खड़ा रहता। कुते की इस ढीठता से वह राजकुमार अत्यधिक क्रोधित हो उठा और उसने कुत्ते को लकड़ी से इतना मारा कि वह मर गया।
अपने भाई के इतने क्रूर व्यवहार को देखकर दूसरे भाइयों ने उससे सम्बन्ध विच्छेद कर लिया। उसने जो पाप किया था, उसके कारण उसे उन्होंने घर से निकाल दिया।
उसने गृह त्याग कर दिया
और बड़वानी रियासत में जाकर वहाँ का दीवान बन गया। जहाँ उसने बहुत उन्नति की।
बड़वानी के समीप ही मुलगाँव था। जो मावची लोगों का मजबूत गढ़ था। जिनका एक मात्र पेशा चोरी डकैती था।
उन्होंने बड़वानी के दीवानों की नेकदिली की चर्चा सुनी थी और उन्हें अपने गाँव में आमंत्रित किया।
मवाची जब चोरी डकैती करने जाने लगे तो उनके मुखिया ने अपनी युवा कन्या की देखरेख का दायित्व दीवान को सौंप दिया।
दीवान और उस कन्या में प्रेम हो गया और वह गर्भवती हो गई।वापस लौटने पर जब मवाची सरदार को पता चला कि उसकी पुत्री गर्भवती हो चुकी है, तो उसने पूछा कि उसकी कोख में किसका गर्भ है।
उस कन्या ने
दीवान का हाथ थाम कर बताया कि वह दीवान का गर्भ है। दीवान और मवाची कन्या का विवाह सम्पन्न कर दिया गया।
उनकी जो संतान हुई, वह भील कहलाई और इसी के कारणवश भील अपने आपको भील नायक कहलाना पसन्द करते हैं।
अपना कीमती समय निकालकर आदिवासी लोककथा पुरखा साहित्य सम्बन्धी पढ़ने के लिए धन्यवाद!
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