निर्वाण षट्कम चिदानंद रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् आदिगुरु शंकराचार्य ने अपने गुरु बाल शंकर को प्रथम भेंट पर अपना जो परिचय दिया था । वही निर्वाणषट्कम के नाम से विख्यात है।
आदि शंकराचार्य ने निर्वाण षट्कम में बताया है कि जीव क्या है? और क्या नहीं है? मूल भाव है की आत्मा जिसे जीव कहते हैं। वह किसी बंधन, आकार और मनः स्थिति में नहीं है। वह ना तो जन्म लेते है और ना ही उसका अंत होता है। वह शिव है।
।। निर्वाण षट्कम ।।चिदानंद रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम्..
मनो बुद्धय हड्.कार चित्तानि नाहं,
न च श्रोत्र जिह्वे न च घ्राण नेत्रे ।
न च व्योम भूमी र्न तेजो न वायु
चिदानंद रूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ||१|
न च प्राण संज्ञो न वै पञ्च वायु,
र्न वा सप्त धातुर्न वा पञ्च कोषाः ।
न वाक्पाणि पादं न चोपस्थ पायू,चिदानंद रूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् || २ |
न मे द्वेष रागौ न लोभ न मोहौ,मदो नैव मे नैव गात्सर्य भावः ।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः,
चिदानंद रूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ||३|
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुखं,न मंत्रो न तीर्थो न वेदा न यज्ञाः ।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता
चिदानंद रूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ||४||
न म मृत्युर्न शड् कान मे जाति भेदःपिता नैव मे नैव माता न जन्म ।
न बन्धुन मित्रं गुरु नैव शिष्यः
चिदानंद रूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ||५||
अहं निर्वि कल्पो निराकार रुपी
विभु र्व्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रि याणाम्।
सदा मे समत्वं न मुक्तिर्न बन्धः
चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ||६||
निर्वाण षट्कम चिदानंद रूप
निर्वाण षट्कम का हिंदी में अर्थ !!
पद- 1
मैं (जीव ) मन, बुद्धि, अहंकार और स्मृति नहीं हूँ (चार प्रकार के अन्तः कारन )।
कान, नाक और आँख भी मैं नहीं हूँ। मैं आकाश, भूमि, तेज और वायु भी नहीं हूँ।
मैं शिव हूँ। शिव से अभिप्राय शुद्ध रूप से है जिसमे कोई मिलावट नहीं है। चेतन शक्ति ही शुभ है
हिंदी में अर्थ पद- 2
मैं प्राण भी नहीं हूँ और ना ही मैं पञ्च प्राणों (प्राण, उदान, अपान, व्यान, समान) में से कोई हूँ,
ना मैं सप्त धातुओं (त्वचा, मांस, मेद, रक्त, पेशी, अस्थि, मज्जा) में कोई हूँ।
जीव का निर्माण साथ धातुओं से माना जाता है।
मैं ना ही पञ्च कोष (अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय, आनंदमय) में से कोई हूँ ,
न मैं वाणी, हाथ, पैर हूँ और न मैं जननेंद्रिय या गुदा हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ।
भाव है की जीव अज्ञानता के कारण ही स्वंय को स्थूल रूप से जोड़ लेता है,
जैसे की हाथ पैर आदि जो दिखाई देते हैं या नहीं, लेकिन जीव तो शिव ही है जो स्वंय समस्त संसार है।
हिंदी में अर्थ पद- 3
मैं राग और द्वेष नहीं हूँ (मैं आसक्ति और विरक्ति में नहीं हूँ ) और नाही मुझमे लोभ और मोह है।
न ही मुझमें मद है न ही ईर्ष्या की भावना, न मुझमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ही हैं,
मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ। लगाव या विरक्ति, लोभ आदि चित्त का अशुद्ध रूप है
और जीव ऐसा नहीं है। जीव शुद्ध है जो की शिव है।
पद- 4
न तो पुण्य हूँ (अच्छे कर्म) सद्कर्म हूँ, न ही मैं पापम (बुरे कर्म) हूँ।
मैं सुख और दुःख दोनों ही नहीं हूँ नो की अज्ञान के कारन उत्पन्न होते हैं।
ना मैं मन्त्र हूँ, न तीर्थ, ना वेद और ना यज्ञ हूँ। मैं ना भोजन हूँ, ना खाया जाने वाला हूँ
और ना खाने वाला ही हूँ। मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ और शिव हूँ।
हिंदी में अर्थ पद- 5
ना मुझे मृत्यु का भय है (मृत्यु का भी अज्ञान का सूचक है), ना मुझमें जाति का कोई भेद है (अद्वैत की भावना नहीं है),
ना मेरा कोई पिता ही है, न कोई माता ही है (मेरा अस्तित्व और उत्पत्ति भी निश्चित नहीं है
जिसे आकार रूप में पहचाना जा सके ), ना मेरा जन्म हुआ है, ना मेरा कोई भाई है
(जन्म मरण से मैं मुक्त हूँ और मेरा कोई सबंधी नहीं है ) ना कोई मेरा मित्र है और ना ही मेरा कोई गुरु है।
मेरा कोई शिष्य भी नहीं है। मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ और मैं शिव हूँ।
पद- 6
आत्मा क्या नहीं है यह समझाने के उपरांत आदि शंकराचार्य जी अब बता रहे हैं की
आत्मा वास्तव में है क्या। मुझमे कोई संदेह नहीं है और मैं सभी संदेहों से ऊपर हूँ।
मेरा कोई आकार भी नहीं है। मैं हर अवस्था में सम रहने वाला हूँ।
मैं तो सभी इन्द्रियों को व्याप्त करके स्थित हूँ, मैं सदैव समता में स्थित हूँ।
मैं किसी बंधन में नहीं हूँ और नांहि किसी मुक्ति में ही हूँ। मैं आनंद हूँ, शिव हूँ। निर्वाण षट्कम चिदानंद रूप
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