नमस्कार दोस्तों!! “देवयानी” – श्री वासुदेवप्रसाद खरे (कवि), काव्य का अंश 18 – “प्रतीक्षा” की मूल कथा पौराणिक है। देवयानी और शर्मिष्ठा दो युवतियों की कलह से संबंधित है। ऐसी युवतियाँ जो क्रमशः ब्राह्मण और क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुई हैं। और जिनके द्वंद में ब्रह्मबल और क्षात्रशक्ति, बौद्धिक और शारीरिक क्षमताओं के द्वंद का आभास है।
काव्य देवयानी की कथा महाभारत के आदि पर्व से ली गई है। उन्हीं में से लिया गया कविता का यह अंश प्रतीक्षा श्री वासुदेव प्रसाद खरे द्वारा लिखा गया है। आइए देखते हैं देवयानी कविता के अंश प्रतीक्षा की एक झलक!!
“देवयानी” श्री वासुदेवप्रसाद खरे कवि काव्यांश
“प्रतीक्षा”
झुक आये नीचे को बादल
सावन की अँधियारी छाई।
काली काली इन रातों मेंभींजी-भींजी वायु लहरती,
गीली गीली-सी आँखों में
साँय-साँय सुनसान हहरती,फिर-फिर उठ उठ देख रही क्या
खटका सुनकर देह सिहरती,खिड़की से निज आँख लगाये
बिजली-सी लेती अँगड़ाई।
उत्सुक नेत्रों में वह बहकर
गालों पर से अश्रु ठुलकते,
फिर-फिर पोंछ रही पर फिर-फिर
प्यालों में अरमान छलकते,
मुरझाते लख हाय निराशा
आशा से पर प्राण किलकते,
लौट रही यह रात्रि कहाँ को
ले-लेकर मुँह से जमुहाई।
बंद बंद फिर खुली अधखुली
बन्द बन्द फिर खुली अधखुलीआँखें और उनींदी होतीं,
लेटी-सी ऊँचे-ऊँचे से
गिरिवर पर हिलते से मोती,
छितराई फैली लट भू पर
सर्पों की ज्यों सेना सोती,
दीप टिमटिमाकर रोता-सा
होता स्वयं अन्ध तम-शायी।
फूले फूले नयन हुए से
निर्जल से खोये-खोये से,
उठ-उठकर अरमान स्वयं ही
लगते हैं जैसे सोये-से,
आये किन्तु न अपने साजन
क्षिति के छोर लगे धोये से,
मुस्काई उठ उठ नव कलियाँ
मुस्काकर यह कलि मुरझाई ।
पड़ी देवयानी धरती पर
अर्धवसन में लिपटी नारी,
मूर्छित-सी आशा में ताजी
सजल स्वयं कोरें कजरारी,
धूल भरे अंगों में दिपती
पीली-पीली-सी उजियारी,
निर्बलता की कृश बाँहों में
सिसक-सिसक लतिका कुम्हलाई।
“बीते इतने दिन औ’ रातें
साजन पर हा लौट न आये,
उर की व्यथा कहूँ मैं किससे
किसको यह उर कथा सुनाये ।
मुझे नहीं कुछ भी है कहना।
तेरे इन अत्याचारों को
केवल चुप होकर ही सहना ।
श्वासों में स्वर स्वयं सँजोकर,
रक्त दृगों की कोर भिजोकर,
आये जो अरमान व छाये
इन ओंठों पर मधु स्मृति होकर;
इन अरमानों को बस कड़वा
घूँट समझकर पीकर रहना।
धड़कन की गति का ले सम्बल,
जीवन से लड़ती हूँ अविकल,
काले ज्वारों के छोरों पर
दमक रही है चपला चंचल;
इस नैराश्य भरी आशा के
लहरों पर अब निशिदिन बहना ।
मेरी दुनिया स्वयं नई अब
वारिमयी अंगारमयी अब,
कब निकलूँगी पानी की
ज्वालाओं से ही स्वर्णमयी अब;
केवल इतना एक भरोसा
तिल-तिलकर दीपक-सा दहना।
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