श्रीमद्भागवत कथा तृतीय स्कन्ध, भाग-3 में वाराह भगवान के बारे में अध्ययन करेंगे।
श्रंखला के इस भाग में जय-विजय को सनकादिक ऋषियों का श्राप तथा हिरण्याक्ष की दिग्विजय के संबंध में बताया है।
इसी में आगे हिरण्याक्ष और भगवान का युद्ध और वध, तथा ब्रह्माजी की विभिन्न सृष्टियों के बारे में वर्णन है ।
1- जय-विजय को ऋषियों का श्राप ! The sages curse Jai-Vijay!
- कश्यपजी की पत्नी दिति को अपने पुत्रों से देवताओं को कष्ट पहुंचाने का बहुत डर था।
- अतः दिति ने कश्यप जी के तेज (वीर्य) को 100 वर्ष तक अपने गर्भ में ही रखा।
- जिससे सभी लोको का तेज क्षीण हो गया, और सभी दिशाओं में अंधकार होने से अव्यवस्था होने लगी ।
- तभी सनकादिक ऋषि वैकुण्ठधाम पहुंचे, तथा निसंकोच वैकुण्ठ की 6 ड्योढ़ीयाँ लांघ बैकुंठ के द्वार पर घुस गए।
- जिन्हें देख विष्णु के द्वारपालों जय और विजय ने उन्हें रोका तथा उनकी हंसी उड़ाई।
- तब सनकादिक ऋषियों ने जय-विजय को श्राप दिया कि तुम वैकुंठ लोक से निकलकर पाप में योनियों में जाओ।
2-सनकादिक की श्रीहरि से भेंट ! Sanakadik met Srihari
- ऋषियों के श्राप को सुनकर जय और विजय भयभीत होकर , क्षमा मांगने लगे।
- कहा कि प्रभु हम पर कृपा करें, उन अधमाधम योनियों में जाने पर भी भगवान की भक्ति हमारी स्मृति में नष्ट ना हो।
- इधर जब भगवान को पता चला कि द्वारपालों ने सनकादिक ऋषियों का अपमान किया है।
- तो वे तुरंत श्री लक्ष्मी के साथ वहां पहुंचे और ऋषियों को दर्शन दिया। ऋषियों ने प्रभु की स्तुति की।
- श्री भगवान ने कहा; मुनिगण आपने इन्हें जो श्राप दिया है वह मेरी ही प्रेरणा से हुआ है।
- अब ये शीघ्र ही दैत्य योनि को प्राप्त होंगे और वहाँ भोगों को भोगकर, जल्दी ही मेरे पास लौट आएंगे।
3- जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन ! Jai-Vijay’s fall from Vaikunth!
- उसके बाद मुनि गण भगवान को प्रणाम कर वहां से लौट गए। भगवान ने अपने अनुचरों जय और विजय से कहा;
- एक बार जब मैं योगनिद्रा में स्थित था तब तुमने द्वार में प्रवेश करती हुई लक्ष्मी जी को रोका था ।
- उस समय उन्होंने क्रुद्ध होकर पहले ही तुम्हें यह श्राप दे दिया था।
- अतः तुम विचलित मत हो, समस्त योनियों में तुम्हे मेरा स्मरण रहेगा। फिर पुनः तुम मेरे पास लौट जाओगे।
- इस प्रकार अपने द्वारपालों को यह आज्ञा देकर भगवान अपने धाम को चले गए ।
- तब वे देव श्रेष्ठ भगवत धाम में ही श्रीहीन हो गए, उनका सारा गर्व गलित हो गया और भी वैकुंठ लोक से गिरने लगे।(श्रीमद्भागवत कथा तृतीय स्कन्ध, भाग-3)
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4- जय-विजय का पुनर्जन्म ! Reincarnation of Jai-Vijay!
- इस समय दिति के गर्भ में स्थित कश्यप जी के उग्र तेज में उन्होंने प्रवेश किया ।
- तथा हिरण कश्यप और हिरण्याक्ष जुड़वा पुत्र के रूप में जन्म लिया।
- यह दोनों अदिदैत्य जन्म के बाद शीघ्र ही अपने फौलाद के समान कठोर शरीरों से बढ़कर पर्वतों के समान हो गए।
- उनका पूर्व पराक्रम भी प्रकट हो गया । प्रजापति कश्यप जी ने उनका नामकरण किया ।
- हिरण्याक्ष व हिरण्यकशिपु दोनों यमज (जुड़वां) थे। हिरण्यकशिपु अपने भाई को बहुत चाहता था।
- ब्रह्मा जी के वर से मृत्यु से मुक्त हो जाने के कारण वह बड़ा उद्यत हो गया था, उसने तीनों लोको को वश में कर लिया।
5- हिरण्याक्ष की दिग्विजय ! Digvijay of Hiranyaksha!
- तीनों लोकों में विजय प्राप्त करने के बाद, एक दिन हाथ में गदा लेकर हिरण्याक्ष युद्ध के लिए स्वर्ग लोक में जा पहुंचा।
- उसे देखकर देवता लोग डर के मारे जहां तहां छिप गए। यह देख हिरण्याक्ष मतवाला हो गहरे समुद्र में घुस गया।
- तथा कई वर्षों तक समुद्र में ही घूमता रहा। किंतु युद्ध के लिए किसी प्रतिपक्ष को ना पाकर मदोन्मत्त हो गया।
- तथा पाताल लोक के स्वामी वरुण जी से व्यंग्य से हंसते हुए, युद्ध की भिक्षा मांगने लगा ।तब वरुण जी ने कहा; कि
- भाई हमें युद्ध करने का कोई शौक नहीं रहा। भगवान पुरुषोत्तम के सिवा तुम्हें और कोई भी युद्ध में संतुष्ट नहीं
- कर सकता। तुम उन्हीं के पास जाओ वही तुम्हारी मनोकामना पूरी करेंगे।
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6- हिरण्याक्ष का भगवान से युद्ध ! Hiranyaksha’s war with God!
- वरुण जी की यह बात सुनकर मदोन्मत्त दैत्य नारदजी से श्रीहरि का पता कर रसातल में पहुंच गया ।
- जहां उसने वराह भगवान को अपनी दाढ़ों की नोक पर पृथ्वी को ऊपर की ओर ले जाते देखा।
- तो वह उन्हें दुर्वचन-बाणों से छेदे जा रहा था। तब भगवान ने पृथ्वी को जल के ऊपर लाकर स्थित कर दिया ।
- फिर हिरण्याक्ष के साथ घोर युद्ध किया । भगवान ने अपने चक्र से उसके त्रिशूल के बहुत से टुकड़े कर दिए ।
- इस प्रकार हिरण्याक्ष व श्रीहरि (वाराह रूप) का भीषण युद्ध होने लगा। हिरण्याक्ष बड़ा ही पराक्रमी था।
- युद्ध में हथियारविहीन श्रीहरि पर कोई वार नहीं किया।अंत मेंप्रभु ने उस मायावी केआसुरी मायाजाल का नाशकिया। (श्रीमद्भागवत कथा तृतीय स्कन्ध, भाग-3)
7- हिरण्याक्ष वध कथा व महत्व ! Hiranyaksha slaughter story and importance!
- घोर युद्ध में श्री हरि के चरन प्रहार से, उनका मुख देखते देखते ही उस दैत्य राज ने अपना शरीर त्याग दिया।
- यह हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु भगवान के ही पार्षद हैं। इन्हें अधोगति प्राप्त हुई थी।
- वह फिर श्री हरि की कृपा से अपने स्थान, श्रीहरि के पास वैकुण्ठधाम को पहुंच जाएंगे।
- जो श्री हरि की व हिरण्याक्ष वध की कथा को सुनता व सुनाता है, या पढ़ता है।
- वह ब्रह्महत्या जैसे घोर पाप से भी सहज में ही छूट जाता है। व वैकुण्ठधाम को प्राप्त करता है।
- यह चरित्र अत्यंत पुण्य परम पवित्र धन और यश की प्राप्ति कराने वाला आयु वर्धक कामनाओं की पूर्ति करने वाला है।
तृतीय स्कंध का शेष भाग अगले लेख में प्रस्तुत किया जाएगा। ! जय श्री कृष्णा !
श्रीमद्भागवत कथा जया किशोरीजी
श्रीमद्भागवत कथा तृतीय स्कन्ध, भाग-3, श्रीमद्भागवत महापुराण से संकलित कर मेरे द्वारा संक्षिप्तीकरण किया क्या है। जो भी त्रुटियां हो क्षमा करें।
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नमस्कार! मैं रेखा दीक्षित एडवोकेट, मैं एडवोकेट ब्लॉगर व युट्यूबर हूं । अपने प्रयास से अपने पाठकों के जीवन की समस्याओं को दूर कर ,जीवन में उत्साह लाकर खुशियां बांटना चाहती हूँ। अपने अनुभव एवं ज्ञान के आधार पर मैंने अपने ब्लॉक को सजाया संवारा है, जिसमें आपको योग ,धार्मिक, दर्शन, व्रत-त्योहार , महापुरुषों से संबंधित प्रेरक प्रसंग, जीवन दर्शन, स्वास्थ्य , मनोविज्ञान, सामाजिक विकृतियों, सामाजिक कुरीतियां,धार्मिक ग्रंथ, विधि संबंधी, जानकारी, स्वरचित कविताएं एवं रोचक कहानियां एवं स्वास्थ्य संबंधी जानकारियां उपलब्ध हो सकेंगी । संपर्क करें : info.indiantreasure@gmail.com
Jai Shree Krishna!
Thankyou
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