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जय-विजय की कथा – श्रीमद्भागवत पुराण – सप्तम स्कंध

जय-विजय की कथा – श्रीमद्भागवत पुराण – सप्तम स्कंध – राजा परीक्षित के प्रश्न करने पर श्री शुकदेवजी ने यह कथा बताई थी। आज हम आपको श्रीमद्भागवत पुराण के सप्तम स्कंध में वर्णित जय और विजय की कथा बताएंगे।

जय विजय की कथा

महाभारत काल में युद्धिष्ठिर द्वारा राजसूय यज्ञ का आयोजन किया गया। उस महान् राजसूय यज्ञ में राजा युधिष्ठर ने अपनी आँखों के सामने बड़ी आश्चर्यजनक घटना देखी-

कि चेदिराज शिशुपाल सबके देखते-देखते भगवान् श्रीकृष्ण में समा गया। वहीं देवर्षि नारद भी बैठे हुए थे । इस घटना से आश्चर्यचकित होकर राजा युधिष्ठिर ने बड़े-बड़े मुनियों से भरी हुई सभा में, उस यज्ञमण्डप में ही देवर्षि नारद से यह प्रश्न किया ।

युधिष्ठिर ने पूछा- अहो ! यह तो बड़ी विचित्र बात है। परमतत्त्व भगवान् श्रीकृष्ण में समा जाना तो बड़े-बड़े अनन्य भक्तों के लिये भी दुर्लभ है,

फिर भगवान से द्वेष करने वाले शिशुपाल को यह गति कैसे मिली ? नारदजी! इसका रहस्य हम सभी जानना चाहते हैं

पूर्वकालमें भगवान की निन्दा करने के कारण ऋषियों ने राजा वेन को नरक में डाल दिया था।

यह दमघोष का लड़का शिशुपाल और दुर्बुद्धि दन्तवक्त्र- -दोनों ही जबसे तुतलाकर बोलने लगे थे, तब से अब तक भगवान से द्वेष ही करते रहे हैं । अविनाशी परब्रह्म भगवान् श्रीकृष्ण को ये पानी पी-पीकर गाली देते रहे हैं।

परन्तु इसके फलस्वरूप न तो इनकी जीभ में कोढ़ ही हुआ और न इन्हें घोर अन्धकारमय नरक की ही प्राप्ति हुई । प्रत्युत जिन भगवान्‌ की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है,

उन्हीं में ये दोनों सबके देखते-देखते अनायास ही लीन हो गये – इसका क्या कारण है ?

हवा के झोंके से लड़खड़ाती हुई दीपक की लौ के समान मेरी बुद्धि इस विषय में बहुत आगा-पीछा कर रही है। आप सर्वज्ञ हैं, अतः इस अद्भुत घटना का रहस्य समझाइये।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- सर्वसमर्थ देवर्षि नारद राजा के ये प्रश्न सुनकर बहुत प्रसन्न हुए।

युधिष्ठिर को सम्बोधित करके भरी सभा में सबके सुनते हुए यह कथा कही ।

नारदजी ने कहा- युधिष्ठिर! निन्दा, स्तुति, सत्कार और तिरस्कार – इस शरीर के ही तो होते हैं। इस शरीर की कल्पना प्रकृति और पुरुष का ठीक-ठीक विवेक न होने के कारण ही हुई है ।

जब इस शरीर को ही अपना आत्मा मान लिया जाता है, तब ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’ ऐसा भाव बन जाता है। यही सारे भेदभाव का मूल है। इसी के कारण ताड़ना और दुर्वचनों से पीड़ा होती है।

जिस शरीर में अभिमान हो जाता है

(जय-विजय की कथा-श्रीमद्भागवत पुराण-सप्तम स्कंध)

कि यह उस शरीर के वध से प्राणियों को अपना वध जान पड़ता है। किन्तु भगवान्‌ में तो जीवों के समान ऐसा अभिमान है नहीं, क्योंकि वे सर्वात्मा हैं, अद्वितीय हैं।

वे जो दूसरों को दण्ड देते हैं— वह भी उनके कल्याण के लिये ही, क्रोधवश अथवा द्वेषवश नहीं। तब भगवान के सम्बन्ध में हिंसा की कल्पना तो की ही कैसे जा सकती। है ।

इसलिये चाहे सुदृढ़ वैरभाव से या वैरहीन भक्तिभाव से, भय से, स्नेह से अथवा कामना से – कैसे भी हो, भगवन् नाम मे अपना मन पूर्णरूप से लगा देना चाहिये।

भगवान की दृष्टि से इन भावों में कोई भेद नहीं है। युधिष्ठर ! मेरा तो ऐसा दृढ़ निश्चय है कि मनुष्य वैरभाव से भगवान में जितना तन्मय हो जाता है, उतना भक्तियोग से नहीं होता ।

भृङ्गी कीड़े को लाकर भीतपर अपने छिद्र में बंद कर देता है और वह भय तथा उद्वेग भृङ्गी का चिन्तन करते-करते उसके-जैसा ही हो जाता है ।

यही बात भगवान् श्रीकृष्णके सम्बन्धमें भी है

लीला के द्वारा मनुष्य मालूम पड़ते हुए ये सर्वशक्तिमान भगवान् ही तो हैं। इनसे वैर करने वाले भी इनका चिन्तन करते-करते पाप रहित होकर इन्हीं को प्राप्त हुये ।

एक नहीं, अनेकों मनुष्य काम से, द्वेष से और स्नेह से अपने मन को भगवान्‌ में लगाकर अपने सारे पाप धोकर उसी प्रकार भगवान्‌ को प्राप्त जैसे भक्त भक्ति से।

महाराज ! गोपियान , भगवान् से मिलन के तीव्र काम अर्थात् प्रेम से, कंस ने भय से, शिशुपाल-दन्तवक्त्र आदि राजाओं ने द्वेष से, यदुवंशियों ने परिवार के सम्बन्ध से, तुम लोगों ने स्नेह से और ने हम लोगों ने भक्ति से अपने मन को भगवान में लगाया है।

भक्तों के अतिरिक्त जो पाँच प्रकार के भगवान्‌ का चिन्तन करने वाले हैं, उनमें से राजा वेन की तो किसी में भी गणना नहीं होती (क्योंकि उसने किसी भी प्रकारसे भगवान्‌में मन नहीं लगाया था ) ।

सारांश यह कि चाहे जैसे हो, अपना मन भगवान् श्रीकृष्ण में तन्मय कर देना चाहिये ।

महाराज ! फिर तुम्हारे मौसेरे भाई शिशुपाल और दन्तवक्त्र दोनों ही विष्णु भगवान् के मुख्य पार्षद थे। ब्राह्मणों के शाप से इन दोनों को अपने पद से च्युत होना पड़ा था।

राजा ने पूछा- नारदजी ! भगवान् के

पार्षदोंको भी प्रभावित करनेवाला वह शाप किसने दिया था तथा वह कैसा था ?

भगवान् के अनन्य प्रेमी फिर जन्म-मृत्युमय संसारमें आयें, यह बात तो कुछ अविश्वसनीय-सी मालूम पड़ती है।

वैकुण्ठ के रहने वाले लोग प्राकृत शरीर, इन्द्रिय और प्राणों से रहित होते हैं। उनका प्राकृत शरीर से सम्बन्ध किस प्रकार हुआ, यह बात आप अवश्य सुनाइये।

नारदजीने कहा –

एक दिन ब्रह्माके मानसपुत्र सनकादि ऋषि तीनों लोकों में स्वच्छन्द विचरण करते हुए वैकुण्ठमें जा पहुँचे।

यों तो वे सबसे प्राचीन हैं, परन्तु जान पड़ते हैं ऐसे मानों पाँच-छः बरस के बच्चे हों। वस्त्र भी नहीं पहनते। उन्हें साधारण बालक समझकर द्वारपालों ने उनको भीतर जाने से रोक दिया।

इसपर वे क्रोधित-से हो गये और उन्होंने द्वारपालों को यह शाप दिया कि ‘मूर्खो ! भगवान् विष्णु के चरण तो रजोगुण और तमोगुण से रहित हैं।

तुम दोनों इनके समीप निवास करने योग्य नहीं हो। इसलिये तुम यहाँ से पापमयी असुर योनि में जाओ। उनके इस प्रकार शाप देते ही जब वे वैकुण्ठ से नीचे गिरने लगे, तब उन कृपालु महात्माओंने कहा-

‘अच्छा, तीन जन्मों में इस शाप को भोगकर तुमलोग फिर इसी बैकुंठ में आ जाना।

युधिष्ठिर ! वे ही दोनों दितिके पुत्र हुए। उनमें बड़ेका नाम हिरण्यकशिपु था और उससे छोटेका हिरण्याक्ष ।

दैत्य और दानवों के समाज में यही दोनों सर्वश्रेष्ठ थे ।विष्णु भगवान् ने नृसिंह का रूप धारण करके हिरण्यकशिपु को मारा और पृथ्वी का उद्धार करने के समय वराहावतार ग्रहण करके हिरण्याक्ष को मारा।

हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद को भगवत्प्रेमी होने के कारण मार डालना चाहा और इसके लिये उन्हें बहुत-सी यातनाएँ दी ।

परन्तु प्रह्लाद – सर्वात्मा भगवान् के परम प्रिय हो चुके थे, समदर्शी हो चुके थे। उनके हृदय में अटल शान्ति थी। भगवान् के प्रभाव से वे सुरक्षित थे।

इसलिये तरह-तरह से चेष्टा करने पर भी हिरण्यकशिपु उनको मार डालने में समर्थ न हुआ ।

युधिष्ठिर! वे ही दोनों विश्रवा मुनि के द्वारा केशिनी (कैकसी) के गर्भ से राक्षसों के रूप में पैदा हुए। उनका नाम था रावण और कुम्भकर्ण।

उनके उत्पातों से सब लोकों मे आग-सी लग गयी थी । उस समय भी भगवान् ने उन्हें शाप से छुड़ाने के लिये रामरूप से उनका वध किया।

युधिष्ठिर! मार्कण्डेय मुनि के मुख से तुम भगवान् श्रीराम का चरित्र सुनोगे ।

वे ही दोनों जय-विजय इस जन्ममें तुम्हारी मौसीके लड़के शिशुपाल और दन्तवक्त्रके रूपमें क्षत्रियकुलमें उत्पन्न हुए थे।

भगवान् श्रीकृष्ण के चक्र का स्पर्श प्राप्त हो जाने से उनके वे सारे पाप नष्ट हो गये और वे सनकादि के शाप से मुक्त , हो गये ।

वैरभाव के कारण निरन्तर ही वे भगवान् श्रीकृष्ण का चिन्तन किया करते थे। उसी तीव्र तन्मयता के फलस्वरूप वे भगवान्‌ को प्राप्त हो गये और पुनः पार्षद होकर उन्हीं के समीप चले गये।

इस प्रकार जय- विजय का उद्धार हुआ।

अंत मे | जय-विजय की कथा

आशा है आपको जय-विजय की कथा – श्रीमद्भागवत पुराण – सप्तम स्कंध अवश्य अच्छी लगी होगी। यह कथा अत्यंत पुण्यकारी है।

अंत तक जय-विजय की कथा – श्रीमद्भागवत पुराण – सप्तम स्कंध पढ़ने के लिए धन्यवाद। अनायास ही इसके पढ़ने और सुनने से आप परमेश्वर के निकट हो जाते हैं। जय श्री कृष्ण🙏

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