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चन्दरी बुआ (bua) का आदर्श दान- प्रेरक प्रसंग (श्री रामेश्वरजी टांटिया)

चन्दरी बुआ ( bua) का आदर्श दान (adarsh daan) (श्री रामेश्वरजी टांटिया) एक प्रेरक प्रसंग है। जो आपके जीवन की दिशा बदल देगा। अवश्य पढ़ें। श्री रामेश्वरजी टांटिया द्वारा लिखित अद्भुत प्रेरक कहानी।

• राजस्थान में पुराने जमाने में ऐसी प्रथा थी कि एक ही गाँव में शादी-विवाह नहीं होते थे। लड़की को दूसरे गाँव में देते और दूसरे गाँव की लड़की को बहू बनाकर लाते थे।

यहाँ तक होता था कि अगर किसी गाँव में बारात आती तो वर-पक्ष के गाँव की जितनी भी लड़कियाँ ब्याही हुई होती, सबको मिठाइयाँ भेजी जाती थीं।

अपने गाँव की लड़की को, चाहे किसी भी जाति की हो, आयु के अनुसार भतीजी, बहन या बुआ (bua) कहकर पुकारा जाता था।

मुझे याद है कि घर के पास मुसलमान लखारों का एक घर था, हम उन सबको चाचा, ताऊ या चाची, ताई कहकर पुकारते थे।

अब गाँव कस्बों में परिवर्तित हो गये हैं और यातायात के साधन सुलभ होने से आवागमन भी बढ़ गये हैं, इसलिये यह प्रथा कम होती जा रही है।

इस कथा की नायिका चन्दरी बुआ (bua) का जन्म राजस्थान को बीकानेर रियासत के एक गाँवमें आज से करीब १३५ वर्ष पहले एक ब्राह्मण-परिवार में हुआ था।

जब चन्दरी बूआ (bua) १२ वर्ष की हुई तो उसका विवाह हुआ। पास के गाँवसे बारात आयी और सारे कार्य धूम धाम से सम्पन्न हुए।

उसका पिता साधारण स्थिति का ब्राह्मण था, परंतु उन दिनों विवाह-शादियों में घरवालों को कुछ विशेष नहीं करना पड़ता था।

गाँव के पुरुष और स्त्रियाँ सारे कामों का आपस में बँटवारा कर लेते थे। प्रति घर से एक-दो रुपये टीके या दान के रूप में दिये जाते, जिससे माँ-बाप के लिये खर्च का बोझ भी कम हो जाता था।

विवाह तो बचपन में हो जाते, पर गौना तीन या पाँच वर्ष बाद होता था।

इससे पहले बहू ससुराल नहीं जाती थी। चन्दरी के पति का देहान्त गौना होने के पूर्व ही हो गया। फिर वह ससुराल नहीं गयी और मायके में ही रहने लगी।

पहले तो वह शायद बेटी या बहन के नाम से पुकारी जाती होगी।

पर मैंने जब होश सँभाला, तब तक वह प्रौढ़ा हो चुकी थी और उसे बूआ का पद मिल चुका था। उसके माँ-बाप स्वर्गवासी हो चुके थे। वह सारे मुहल्ले की बूआ कहलाने लगी थी।

दान-दक्षिणा लेने में उसे प्रारम्भ से ही ग्लानि थी। इसीलिये वह सबके साथ अच्छे सम्बन्धों के कारण श्रम करके ही अपना जीवन निर्वाह करती थी।

सुबह चार बजे उठकर चक्की पीसने बैठ जाती और सूर्योदयत क ८-१० सेर तक अनाज पीस लेती। इससे प्रतिदिन दो-अढ़ाई आने तक कमाई हो जाती।

उसे कभी काम का अभाव न रहता; क्योंकि एक तो वह काम में स्वच्छता रखती, अनाज को साफ करके पीसती तथा दूसरे, पिसाई में आटा घटाती न थी।

जब कभी हमारी नींद पहले खुल जाती तो चन्दरी बूआ (bua) के भजन तथा उनकी चक्की की आवाज सुनायी पड़ती। उन दिनों एलार्म घड़ियाँ तो सुलभ थी नहीं,

अतः जिसे कभी मुहूर्त साधकर जाना होता या पहले उठना होता, वह चन्दरी बूआ (bua) को समय पर जगाने को कह जाता, और वह उसे नियत समय पर जगा देती।

उस समय तारों को देखकर समय का ज्ञान बड़ी-बूढ़ी स्त्रियों को रहता था।

उनकी आवश्यकताएँ कम थीं। इसलिये दो-ढाई आने में सामान्य जीवन निर्वाह हो जाता था। चन्दरी बूआ ने इससे अधिक कमाने की आवश्यकता नहीं समझी।

दिन में वह मुहल्ले के बच्चों की देखभाल करती तथा कोई बीमार होता तो उसकी सेवा करती रहती। उन दिनों प्रसव का काम सयानी स्त्रियाँ या दाइयाँ ही सँभालती थीं।

कठिन से कठिन समय में भी चन्दरी बुआ (bua) के आ जाने पर घरवालों को और जच्चा को सान्त्वना तथा साहस मिल जाता था।

उसने न तो कभी पति-प्रेम को जाना और न उसके बच्चे ही हुए, परंतु जीवन का सारा प्रेम और ममत्व दूसरों के बच्चोंपर उड़ेल दिया।

मुहल्ले के बच्चे सारे दिन उसे घेरे रहते। किसी को पतंग के लिये लेई चाहिये तो किसी को अपनी गुड़िया के लिये रंग-बिरंगे कपडे। उसके दरवाजे से निराश जाते किसी को नहीं देखा।

संगीत की शिक्षा लिये बिना ही उसे ताल और स्वर का यथेष्ट ज्ञान था। विधवा होने के कारण विवाह शादी के गीत तो नहीं गाती, परंतु भजन और ‘रतजगा ‘ (रात्रि जागरण) उसके बिना नहीं जमते थे।

मीरा और सूर के पदों को इतनी लवलीन होकर मधुर रागिणी से गाती कि सुनने वाले भाव विभोर हो जाते।

जब वह काफी वृद्द हो चली तब भी मैंने उसे देखा था । उस समय अनाज पीसना तो उसके वश की बात नहीं थी। फिर भी कुछ छोटा-मोटा काम करती रहती थी।

वह इतनी बूढ़ी हो चुकी थी कि उसके हाथ और गर्दन काँपने लग गये थे और आवाज में भी हकलाहट-सी आ गयी थी।

प्रतिवर्ष गर्मी मौसम में लोग हरिद्वार और बदरीनाथ जाते थे। चन्दरी बुआ (bua) से लोगों ने बहुत बार आग्रह किया, परंतु उसका एक ही जवाब होता,

कि मुझ गरीब और अभागिन के भाग्य मे तीर्थयात्रा कहाँ है ! यह सब तो भाग्यशाली लोगों को मिलता है।

एक दिन उसने मुझे बुलाया और कहने लगी आजकल स्वास्थ्य जरा ठीक नहीं रहता। पता नहीं कब शरीर छूट जाय।

मेरे मन में अपनी ससुराल के गाँव में एक कुआँ बनाने की साध है। वहाँ एक ही कुआँ है।

इसलिये गर्मी में गाय और ढोर तो प्यासे रहते ही हैं, मनुष्य को भी पूरा पानी नहीं मिलता। तुम पता लगाकर बताओ कि कुआं में कितना खर्च वैठेगा।

मैं सोचने लगा कि बुढ़ापे में बुआ (bua) का दिमाग खराब हो गया है।

आजकल दोनों वक्त का खाना तक खुद नहीं जुटा पाती, इस पर भी कुआँ बनाने की धुन लगी है।” बात आयी गयी हो गई।

परंतु १०-१२ दिन बाद देखता हूँ कि लाठी टेकती बुआ (bua) सुबह सुबह हाजिर है। मन में अपने ऊपर ग्लानि और क्षोभ हुआ कि जिसके स्नेह की छाया में बचपन के इतने वर्ष बिताये।

जिससे नाना प्रकार के छोटे-मोटे काम लिये। बहुत रात गये तक कहानियाँ सुनी, उसके एक छोटे से कामपर भी मैंने ध्यान नहीं दिया।

मैंने कहा, ‘वहाँ पानी बहुत नीचा है, इसलिये कुएं पर दो-ढाई हजार रुपये खर्च होंगे। यदि कुइयाँ (छोटा कुआँ) बनायी जाय तो शायद डेढ़ हजार तक मे बन सकेगी।

मेरा उत्तर सुनकर आके झुर्रिया भरे चेहरे पर एक गहरी उदासी छा गयी, वह मन ही मन कुछ हिसाब सा लगाने लगी। दूसरे दिन मुझे अपने घर आने को कहकर चली गई।

अगले दिन जब उसके यहाँ पहुंचा तो देखा कि वह मेरा इन्तजार कर रही है। थोड़े देर इधर-उधर देखकर मुझे भीतर की एक कोठरी में ले गयी।

खाट के नीचे से एक पुराना डिब्बा निकाला और उसे खोलकर मेरे सामने उड़ेल दिया।

रानी विक्टोरिया, एडवर्ड और जार्ज पंचम की छाप के पुराने रुपये थे तथा कुछ रेजगारी थी।

थोड़े से चाँदी के गहने और एक सोने की मूर्ति थी, जो शायद उसकी माँ ने उसके विवाह के समय उसको दी होगी।

मैं रुपये गिन रहा था और पिछले ६०-७० वर्षों का इतिहास मेरे मानस में तैर रहा था। सोच रहा था, इस वृद्धा की सारी उम्र की गाढ़ी कमाई का यह पैसा है।

जो उसने कठिन जीवन बिताकर यहाँ तक कि तीर्थयात्रा को बलवती इच्छा को दबाकर इकट्ठा किया है। आज जीवन के सन्ध्याकाल में सारा का सारा परोपकार में लगा देना चाहती है।

गिनकर मैंने बताया कि लगभग ९०० रुपये हैं। ३०० रुपये के गहने होंगे। इतने में काम बन जायगा, जो कुछ थोड़ी कमी रहेगी उसकी व्यवस्था हो जायगी, कोई चिन्ता की बात नहीं है।

वह बोली ‘बेटा, मेरे पति के निमित्त कुआँ बनेगा। इसमें दूसरों का पैसा नहीं ले सकूँगी। नहीं होगा तो एक मजदूर कम रखकर कुछ काम मैं कर दिया करूंगी।

मैंने पूछा, ‘बुआ, (bua) कुएँ पर किसके नाम का पत्थर लगेगा ?’

अपनी धुँधली आँखोंको कुछ फैलाने की चेष्टा करते हुए बूआ (bua) ने जवाब दिया- ‘नाम की इच्छा से पुण्य घट जाता है, फिर मानुष तो स्वयं क्षणभंगुर है, उसके नाम का मूल्य ही क्या ?”

मुझे इस अनपढ़ वृद्धा के तर्क पर आश्चर्य के साथ श्रद्धा हो रही थी। यह कुआँ बनाने के परोपकारी काम के लिये सर्वस्व लगाकर भी न तो अपना और न अपने पति के नाम का पत्थर लगाने की इच्छा रखती है,

जबकि आज एक लाख लगाकर पाँच लाख का इमारत पर या संस्था पर नाम लगाने की खींच तान धनवान् और विद्वानों में लगी रहती है ।

तथा उद्घाटन समारोह किस मन्त्री या नेता से करायें, इस पर भी काफी सोच-विचार होता है। तय नहीं कर पा रहा था कि कौन बड़ा दानी है और किसका दान ज्यादा सात्त्विक है।

कुछ दिनों बाद उस गाँव में गया तो कुआँ बन रहा था और चन्दरी बूआ (bua) भी मजदूरों के साथ टोकरी ढो रही थी।

उसकी लगन और परिश्रम देखकर दूसरे मजदूर कारीगर जी-जान से काम में जुटे थे।

किसी ने कहा- ‘बूआ (bua), तुम्हारे कुएँ का पानी तो बहुत मीठा निकला है, परंतु तुम तो बहुत दिन नहीं पी सकोगी।’

वह बोली- ‘मेरा इसमें क्या है? तुम सब लोगों में रहकर कमाया हुआ पैसा था, वह भले. काम लग गया।

दूसरों के कुआँ से सारी उम्र पानी पिया है इसलिये छोटे-से प्रयत्न के द्वारा मैंने अपना ऋण चुकाने का प्रयास किया है।

मेरी आखिरी इच्छा है कि जब मेरे प्राण निकले तो गंगाजल साथ-साथ इस कुएँ का पानी भी मेरे मुँह में डालना।

कुआँ बनकर तैयार हो गया, परंतु बुआ ( bua) थककर बीमार हो गयी। जिस दिन हनुमान जी का जागरण और प्रसाद हुआ, वह बेहोश-सी थी।

जागरण में आस पास से देहात के काफी लोग इकट्ठे थे। भजन-कीर्तन चल रहा था, थोड़ी देर बाद वहाँ सबके सामने बुआ (bua) का देहान्त हो गया।

आज वह गाँव बड़ा हो गया है और दूसरे कुएँ भी बन गये हैं, परंतु चन्दरी-कुएँ के पानी के समान मौठा पानी किसी का भी नहीं है।

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