नमस्कार दोस्तों ! भूख एक लघु कथा है, जो ग्रामीणों के जीवन की व्यथा दर्शाती कहानी। जिसे लेखिका श्रीमती मनोरमा दीक्षित (पूर्व प्राचार्या) मण्डला, स्वरचित कहानी संग्रह पलाश के फूल में संकलित किया है।
लेखिका ने ग्रामीण क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग कर ग्रामीण परिवेश को जीवंत कर दिया है। आइये पढ़ते हैं भूख एक लघु कथा !
भूख एक लघु कथा (पलाश के फूल) !
खुद से भी बड़ी लाठी रख, सीना फुलाकर मौज मस्ती से चलने वाला ढब्बल,
बात करते-करते वहीं जमीन में बैठकर पसीना पोंछने लगा।
ढब्बल के सूखे मुख को देखकर समदू काका मन ही मन बड़बड़ाया ‘हे राम, कितना तगड़ा था यह,
और आज इसने अपनी क्या हालत बना रखी है।” होठों में पड़ी पपड़ी और अंदर की ओर धंसी अशक्त आँखें,
उसकी भुखमरी की चश्मदीद गवाह बन गयी थीं।
“कैसे ढब्बल तैं तो ऐसन पसीना पोंछ रहे हस जैसन तैं कई दिनन ले खाये पिये नहीं हस, का काम धन्धा करथस”समदू काका ने अपनी बात पूरी की, जो ग्राम परसाटोला में खुले ग्रेन बैंक के अध्यक्ष चुने गये थे।
भूख की पीड़ा से अधमरा ढब्बल अपनी फटी घुटनों तक पहनी धोती से तन को ठीक से ढांकते बड़े-बड़े आंसू से रोने लगा।
समदू काका की सहानुभूतिपूर्ण बातों से ढब्बल के सूखे गालों में जमुना बह चली।
धुलधुलकर धूमिल हो चुकी बंडी के कंधे पर टंगे-मैले कुचैले गमछे से आंसुओं को थामता
अपनी व्यथा को बयां करने की कोशिश में बार-बार रुंधते गले को साफ कर वह कहने लगा-
“अरे या बारिस मा……
“अरे या बारिस मा कामौ धन्धा तो नहि मिलै । घर माँ संझा के संझा चूल्हा जरथै,
लकड़ी गट्ठौ नहिं बिकै या बरसात माँ। सबै जने खुले मा खरीद लिहिन हवय या पन्द्रवाही बीमारी अजारी माँ गइस,
वा टूरन के महतारी मोताझरा मा पड़ीसे । मोर पोती रमिया खाज खुजली ते फदफदाईसे ।
बेटा गरीबा डोंगर गये रहिस, तो ओखरे पैर माँ टंगिया (कुल्हाड़ी) ते घाव भइस जेन पक गइसे ।
ओहु खटिया मा बैठे खा रहीसे।”
“तैं अतेक दिनन ते दुख उठातस अखर मोला झैं बताइस, अब सोच मा झैं पड़े मैं तोला “ग्रेन-बैंक” ते गल्ला देहूँ।धन्न कहो सरकार ला, जेन हमला भीजे सूखे मा पेट भरन केर रस्ता बनाइसे”समदू काका ने ढब्बल को ढाढस बंधाया
तोर घरवाली, बेटा अउर पोती ला काल सरकारी अस्पताल ले चलबो, महूँ आहूँ,
डाक्टर मरकाम मोर जान पहचान कर हवय तोरे सबै दुःख मिटि अब दूनो जून चूल्हा जलिही।”
“एक बार मात्र पचास …
( भूख एक लघु कथा )
“एक बार मात्र पचास रुपया जमा कर, बरसात के मौसम में काम धन्धा न मिलने पर हर गरीब
आदिवासी भाई बहिनों को गल्ला’ ग्रेन बैंक” से मिल सकता है,
गाँव के सरपंच के जरिये “ग्रेन बैंक की सहूलियत देकर हमारी सरकार ने गरीबों को मुखमरी से उबार लिया है।
वहाँ अचानक पहुँचे ग्रामसेवक चाचा ने समझाया “या तो कभू नहि भइस जोन तै बताथस काका,
या सांची हवय का मोला भुटकाथस” वहीं बैठे बैठे इनकी बातें सुनता चाहिया बोल उठा।
अरे मैं काहे भुटकाहूँ तुम पंचन ला
“हम कहाँ ले पाबो पचास रुपिया’ लम्बी सांस खींचकर ढब्बल चुप हो गया।
तभी उसकी बहु झुनिया ने आकर अपनी खूंटी से पचास रुपये निकालकर समदू काका के हाथ पर धर, पैर छूने लगी।”
अरे अरे या का करथस बेटी, तै दुफ्फर के ग्राम पंचायत मा आबे, होई पैसा जमा होही और तोला रसीद मिलिही।
अब तैं “ग्रेन बैंक” के सदस्य होय जाही, फेर ग्राम पंचायत मा तोला दाना मिलिही” समदू काका ने समझाया।
वहीं खड़े हरिया, ढोली, चरन, सत्तू, भद्दे और दयाल भी खुश हो यह खबर गाँव में बताने चल दिये ।
“अरे झुनिया बहू,..
तोर या पैसा बाद मा वापिस मिलि जाही, झैँ घबरावे” काका ने उसके सिर पर हाथ फेरकर कहा।
झुनिया अपनी सोमवती को बता रही थी कि तेंदूपत्ता तुड़ायी के बोनस से उसने ये रुपये बचा लिये थे,
जो आज गाढ़े वख्त में उसके काम आये थे। सरकार की जय जयकार करते वे सभी “ग्रेन बैंक” के सदस्य बन गये हैं।
अब गांव में कोई भूखा नहीं सोता।
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