नमस्कार दोस्तों !! “पेशी” एक लघु कथा ग्रामीण परिवेश का एक मार्मिक चित्रण है। जिसमें ग्रामीणों के जीवन की व्यथा छिपी है।
उनका जीवन और मरण एक हादसे के सिवा कुछ नहीं है।
जिंदगी की गाड़ी अपनी रफ्तार से चलती ही रहती है। और गरीबों की मौतें होती रहती है।
जरा सी लापरवाही और जल्दीबाजी किस प्रकार मौत को आमंत्रण देती है। किंतु जिंदगी फिर भी नहीं रुकती।
शासकीय योजनाओं से लाभ उठाकर जीवन को कैसे संवारा जा सकता है। एक टूटे-बिखरे परिवार की व्यथा कथा।
आज हम आपके लिए लाएं हैं एक स्वस्थ मनोरंजक व शिक्षाप्रद कहानी “पेशी” एक लघु कथा !!
“पेशी” एक लघु कथा :(श्रीमती मनोरमा दिक्षित)
रात से ही पानी की बूंदे नहीं टूट रही थीं। सावन सोमवार का दिन था।
मड़फा से मंडला आने वाली मेटाडोर खचाखच भरी थी। समारु को पहली गाड़ी से पेशी के लिये कोर्ट पहुंचना था।
सिर मे पगिया बांध, मटमैली, आधे टांग की धोती और मटमैला कुरता संभालते हुए।वह मेटाडोर की ओर जोर से लपका। एक ही गाड़ी तो सबेरे मिलती है।
वह भी छूट गयी तो फिर वकील सा. की फटकार तो सुननी होगी।
पिछली पेशी में भी वकील सा. को कुछ नहीं दे पाया है। “कहूँ वारंट होय गईस तो सफ्फा मरन है।”
भींजता-दौड़ता समारु मेटाडोर के पास पहुंचा। पर यह क्या ? वहां तो तिल धरने तक की जगह नहीं थी।भेड़-बकरी की तरह भरे थे यात्री। पसीने से हाल बेहाल हो रहे थे।
तभी गाड़ी के अंदर से कड़क आवाज आई- दूसरी गाड़ी में आना, इसमें जगह नहीं है।
समारु गिड़गिड़ाया “खड़े खड़े चले जाहूं दाऊ, मोला ले चलबे”!दरवाजे के पायदान पर वह चढ़ा ही था कि “मेटाडोर” छूट गयी। समारु की घबराहट अब कम होने लगी थी।
तभी पैसा वसूलने वाले की तीखी आवाज “रुपया निकाल डुकरा”।
सुनकर घबराया समारु!! बंडी से जैसे-तैसे दरवाजे का सहारा लेकर पैसा निकालने लगा।
32 सीटर गाड़ी में लगभग 98 सवारी भरी थी।
एक हाथ से मेटाडोर का हैडिल पकड़े वृद्ध समारु थरथराती टांगों से खड़ा, पैसा निकाल ही रहा था।
कि तेजी से भागती गाड़ी के सामने मोड़ से अचानक आती मोटरसाइकिल से घबराकर, ड्रायवर ने जोरदार ब्रेक लगाया।
फिर क्या था, पलक झपकते ही समारु अपने झोला सहित सड़क पर था।
मेटाडोर के पिछले चाक ने उसके सीने को रौंद डाला था।
चंद क्षणों पहले मजे से …
बीड़ी का कश लेता समारू खून से लथपथ बिखरा पड़ा था।
गाड़ी में बैठी अन्य सवारियों पर ऊपर रखा वजनी सामान गिरने से उनके सिरों से खून के फव्वारे निकल रहे थे।
चोट खाये यात्रियों की चीख-पुकार से दिल दहल गये।
जवान सवारियों की मदद से घायलों को नीचे उतारा गया, परंतु समारु के प्राण पखेरु तो कब उड़ चुके थे।
गाड़ी मझगांव थाने में खड़ी की गयी। सभी यात्रियों को दूसरी मेटाडोर से भेजने की व्यवस्था की गयी।
समारु के साथ उसी गांव के चार पेशीदार उसकी लाश के साथ थाने में रुक गये।
इत्तफाक से डेविड वकील सा. भी उसी गाड़ी में थे।
उन्होंने पोस्टमार्टम कार्यवाही तुरंत करवा के लाश उसके घरवालों को दिलवा दी।
वकील साहब द्वारा कराये गये वायरलैस से ही उसकी पत्नी और दो भाई तुरंत आ गये थे।
आज समारु अपने दो बारे-बारे बच्चों और घरवाली बुधनी को छोड़ दूसरी दुनिया में चला गया था।
रोते रोते बेहोश होती …
बुधनी के गर्भ में समारू की संतान पल रही थी।
दोनो छोटे बच्चे भी रोते-रोते वहीं जमीन पर भूखे प्यासे सो गये थे।
भगवान के रूप में मिले वकील साहब, बुधनी और उसके परिवार को समझा रहे थे।
यही नहीं, उन्होंने अपने पाकिट से खर्च कर समारु का क्रियाकर्म करवाया ।
आज समारु का दसवां हो रहा था। आंगन में बैठे वकील साहब बुधनी से वकालतनामा में अंगूठा लगवा रहे थे।
दुर्घटना बीमा के तहत न्यायालय की मदद दिलवाने की समझाईश दी।
साथ ही उन्होंने बुधनी को तुरंत खर्च चलाने को कुछ आर्थिक मदद भी दी।
सामाजिक बीमा की राशि उसे जल्दी ही मिल गयी थी।समय अपनी गति से दौड़ता रहा।
आज वकील सा की दौडधूप से बुधनी का 4 लाख 50 हजार रुपये का दावा मंजूर हो गया था।
पचास हजार रुपये की पहली किश्त भी उसे 16 ता. को मिल चुकी थी।
जिससे वह अपने घर की मरम्मत करा, खेती करके गुजारा चलाती थी।
बेटा रमलू को वकील साहब अपने साथ रख पढ़ा लिखा रहे थे।
वकील सा. की समझाईश से बुधनी अब बड़ी समझदार हो गयी थी।
उसका बेटा रमलू अब डेविड सा. के साथ रहकर रमलसिंह हो गया था।
उसकी चार लाख रुपये की राशि वकील साहब ने बैंक में फिक्स करा दी थी।
रमलसिंह अब गांव के छोटे-मोटे मामलों को लोक अदालत में लाकर बिना पैसाघेला लगाये निपटवाता था।
उसका छोटा भाई अब “माता-पिता सदृश्य वकील सा. की छत्रछाया में सिविल कोर्ट में बाबू हो गया था।
जबकि नन्हीं सुनिया जो समारु की मौत के समय मात्र 2 वर्ष की थी,
अब गांव के पास ही हायर सेकेण्डरी में शिक्षिका थी।
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