श्रीमद्भगवत कथा चतुर्थ स्कन्ध Total Post View :- 17208

श्रीमद्भगवत कथा चतुर्थ स्कंध

श्रीमद्भगवत कथा चतुर्थ स्कंध का श्रवण एवं पाठन पुण्यदायक एवं मोक्ष को दिलाने वाला है।

इसे पढ़ने, सुनने व सुनाने से भगवान की कृपा प्राप्त होकर सारे दुख और क्लेश मिटने लगते हैं।

श्रीमद्भगवत कथा चतुर्थ स्कन्ध (भाग-2)! Srimad Bhagavatakatha Fourth Wing (Part-2)

इस लेख में आप पाएंगे –

  • बालक ध्रुव की कथा !
  • ध्रुव के वंशज राजा अंग एवं राजा वेन की कथा!
  • महाराजा पृथु का चरित्र!
  • प्रचेताओं की कथा!
  • पुरंजन उपाख्यान !

 

1-बालक ध्रुव की कथा! Legend of child Dhruv !

श्रीमद्भगवत कथा चतुर्थ स्कंध में भगवान श्री हरि के भक्ति प्रदान करने वाली ध्रुव की कथा है। 

महारानी शतरूपा और उनके पति स्वयंभू मनु के प्रियव्रत और उत्तानपाद दो पुत्र थे।

उत्तानपाद की सुरुचि व सुनीति दो पत्नियाँ थी। सुरुचि के पुत्र का नाम उत्तम और सुनीति के पुत्र का नाम ध्रुव था।

राजा को सुरुचि अधिक प्रिय थी। एक दिन राजा उत्तानपाद सुरुचि के पुत्र उत्तम को गोद में बैठा कर प्यार कर रहे थे।

उसी समय ध्रुव ने गोद में बैठना चाहा परंतु राजा ने उसपर ध्यान नहीं दिया।

सुरुचि ने ध्रुव से कहा; कि यदि राज सिंहासन की इच्छा है तो तुझे मेरे गर्भ से जन्म लेना होगा।

सुरुचि की यह बातें सुनकर बालक के मन में बहुत कष्ट हुआ।

ध्रुव का दुखी होना! Dhruva being sad!

वह अपनी माता के पास आ गए। माता को सारी बात बता कर, रोने लगे।

 माता सुनीति ने उनसे कहा की माता सुरुचि ने जो कहा  वह सही है। तुझे श्री हरि के चरणों की आराधना करनी चाहिए।

तब वे इस दुख से आहत होकर,वन को चले गए ।जहां  नारद जी ने उन्हें मंत्र जाप के बारे में बताया ।

“ओम नमो भगवते वासुदेवाय” के सात रात जप करने से आकाश में विचरण वाले सिद्धों का दर्शन हो सकते है।

अब स्वयं पढें ; श्रीमद्भागवत महापुराण (एक संक्षिप्त विवरण)- प्रथम स्कन्ध- भाग-1 Now read it yourself; Shrimad Bhagwat Mahapuran (A brief description) – First Wing – Part-1

2-ध्रुव की तपस्या! Penance of Dhruv!

यमुना नदी में स्नान करके उस रात पवित्रता पूर्वक उपवास किया।

और श्रीनारायण की उपासना प्रारंभ कर दी। तीन रात्रि के अंतर से कैथ व बेर के फल खाकर एक माह व्यतीत किया।

दूसरे महीने में,सूखे घास-पत्ते खाये। तीसरे महीने नौ-नौ दिन पर केवल जल पीकर समाधियोग किया।

चौथे महीने में श्वास को जीतकर बारह-बारह दिन के बाद केवल वायु पीकर ध्यान-योग किया।

पांचवे महीने में श्वास को जीत, परब्रह्म का चिंतन करने लगे।

एक पैर से खंबे के समान निश्चल भाव से खड़े रहे। अपने मन को सभी ओर से खींच लिया।

भगवान श्रीहरि के स्वरूप का चिंतन करते हुए चित्त को दूसरी ओर ना जाने दिया ।

कठोर तप से तीनों लोक प्रभावित हुए! All three lok were affected by harsh tenacity!

जब उन्होंने इस प्रकार तप किया तब तीनो लोक काँप उठे।

ध्रुव के एक पैर से खड़े होने से उनके अंगूठे से दबकर आधी पृथ्वी झुक गई ।

अपने इन्द्रीय द्वार तथा प्राणों को रोककर अनन्य बुद्धि से विश्वात्मा श्रीहरि का ध्यान करने लगे ।

उनकी समष्टि प्राण से अभिन्नता हो जाने के कारण सभी जीवो का श्वास-प्रश्वास रुक गया।

इससे समस्त लोक और लोकपालों को बड़ी पीड़ा हुई । वे सब घबराकर श्रीहरि के शरण में गए ।

तब भगवान ने कहा;तुम डरो मत।उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव ने अपने चित्त को मुझ में लीन कर दिया है।

इस समय मेरे साथ उसकी अभेद-धारणा सिद्ध हो गई है ।अतः उसके प्राणनिरोध से तुम सबके प्राण रुक गये है।

आप निश्चिंत होकर अपने लोको को जाओ। मैं ध्रुव को इस दुष्कर तप से निवृत कर दूंगा।

तब भगवान ने ध्रुव को दर्शन दिए। प्रभु को सामने देखकर ध्रुव कुछ बोल नहीं पाए ।

भगवान ने अपने वेदमय शंख को उनके गाल से छुआ दिया। जिससे उन्हें वेदमयी दिव्य वाणी प्राप्त हो गई।

3- ध्रुव की घर वापसी! Dhruv’s homecoming!

उन्हें जीव तथा ब्रह्म के स्वरूप का निश्चय हो गया। भगवान ने छत्तीस हजार वर्ष पृथ्वी का पालन करने का वरदान दिया।

ध्रुवलोक में उत्तम पद प्रदान किया । भगवान से वरदान पाकर वे वापस अपने घर लौटे।

उत्तानपाद ने अपने पुत्र ध्रुव का भूमंडल के राज्य पर राज्य अभिषेक कर दिया।

उनका विवाह शिशुमार की पुत्री भृमी के साथ हुआ । उससे उनके दो पुत्र कल्प और वत्सर हुए ।

दूसरी पत्नी वायु पुत्री इला थी। उससे उत्कल नाम का एक पुत्र और कन्या का जन्म हुआ।

उत्तम की मृत्यु व दक्षयुध्द! Uttam’s death and war

उत्तम का विवाह नहीं हुआ था। एक दिन शिकार खेलते हुए उसे हिमालय पर्वत पर एक बलवान यक्ष ने मार डाला।

उसके साथ उसकी माता भी परलोक सिधार गईं। ध्रुव ने जब भाई के मारे जाने का समाचार सुना ।

तब क्रोधित हो यक्षों से भरी अलकापुरी में जाकर अपना शंख बजाया ।

जिससे सभी यक्ष अपने नगर के बाहर निकल आए और भयंकर युद्ध हुआ। युद्ध में सभी यक्ष मारे गए।

जो बच गए थे वे मैदान छोड़कर भाग गए। परास्त यक्ष आसुरी माया से युद्ध करने लगे। पुनः घोर युद्ध छिड़ गया।

यक्षों द्वारा आसुरी माया फैलाने लगे । ऋषियों के बताने पर ध्रुव ने आचमन किया।

श्री नारायण के बनाए हुए नारायणास्त्र को धनुष पर चढ़ाया। वैसे ही यक्षों द्वारा रची हुई सारी माया नष्ट हो गई।

4- कुबेर का ध्रुव को वरदान! Kubera’s boon to Dhruva!

जब उनके पिता स्वयंभू मनु ने देखा; ध्रुव निरपराध यक्षों को मार रहे हैं।

उन्हें उन पर दया आई । वे बहुत से ऋषियों को साथ लेकर वहां आए।

और उन्होंने युद्ध बंद करने के लिए अपने पौत्र को समझाया।

तब उन्हें प्रणाम कर ध्रुव ने युद्ध को बंद किया। इसके पश्चात वे महर्षियों सहित अपने लोक को चले गए।

ध्रुव का क्रोध शांत हो गया। वे यक्षों के वध से निवृत हो गए।

तभी भगवान कुबेर वहां आए । यक्ष, चारण, किन्नर सभी स्तुति करने लगे । ध्रुव भी प्रणाम कर खड़े हो गये।

कुबेर का वरदान! Kubera’s blessing!

कुबेर भगवान ने प्रसन्न होकर ध्रुव से कहा ; कि तुमने अपने दादा के कहने से बैर त्याग दिया।

इससे मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूं । तुम निसंकोच होकर वर मांग लो।

तब ध्रुव ने उनसे यही मांगा कि ;मुझे श्रीहरि की अखंड स्मृति बनी रहे ।

जिससे मनुष्य सहज ही दुष्कर संसार सागर को पार कर जाता है ।

तब कुबेर जी ने बड़े प्रसन्न मन से उन्हें भगवत स्मृति प्रदान की । और अंतर्ध्यान हो गए ।

फिर समस्त ऐश्वर्य का भोग करते हुए उन्होंने छत्तीस हजार वर्ष तक पृथ्वी का शासन किया।

अंत में अपने पुत्र उत्कल को राज सिंहासन सौंप कर बद्रीकाश्रम चले गए।

जहां उन्होंने प्राणों द्वारा वायु को वश में किया। और समाधि में लीन हो गए। तब भगवान के पार्षद उन्हें विष्णु लोक को ले आए।

5- राजा अंग की कथा! Legend of King Anga!

महाराजा ध्रुव के वन चले जाने पर उनके पुत्र उत्कल ने पिता के वैभव और राज्य को त्याग दिया।

तब छोटे भाई वतसर को राजा बनाया गया । एक बार वत्सर के वंशज राजा अंग ने अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया।

जिसमें देवताओं का आवाहन किया गया । किन्तु कोई देवता नही आये।

तब ऋत्विजों ने कहा कि पूर्वजन्म के अपराध के कारण ही आप पुत्रहीन है। अतः पुत्रप्राप्ति हेतु यज्ञ करें।

पुत्रप्राप्ति यज्ञ! Putrayal Yajna!

तब राजा अंग ने पुत्र प्राप्ति हेतु यज्ञ प्रारंभ किया। यज्ञ अग्नि में आहुति डालते ही एक पुरुष हाथों में खीर ले प्रकट हुए।

जिसे राजा अंग ने अपनी पत्नी को खिलाया। राजा अंग की पत्नी सुनिथा मृत्यु की पुत्री थी।

अतः उससे उतपन्न पुत्र वेन भी बड़ा अधार्मिक हुआ। वेन की ऐसी दुष्ट प्रकृति को देखकर ; महाराजा अंग ने उसे सुधारने की कोशिश की।

किंतु असफल रहे। इससे उन्हें बड़ा दुख हुआ । वह सबका मोह छोड़कर वन को चल दिए।

6- राजा वेन की कथा! Legend of King Wayne!

राजा अंग के न होने से माता सुनिथा कि सम्मति से हालांकि मंत्रि असहमत थे।

फिर भी कोई विकल्प न होने पर वेन को राजपद दे दिया गया। वेन बड़ा कठोर शासक था। उससे चोर डाकू बहुत डरते थे।

राज्य पाकर, वेन उन्मत्त हो गया। वह महापुरुषों का अपमान करने लगा। उसने ढ़िढोरा पिटवा दिया ।

कि कोई भी द्विजजाति वर्ण का पुरुष किसी प्रकार का यज्ञ, दान, हवन न करें ।

उसने सारे धर्म-कर्म बंद करवा दिए। मुनियों ने राजा को समझाया कि आप यज्ञ,जप,अनुष्ठान बंद न करें ।

तथा आपको देवताओं का तिरस्कार नहीं करना चाहिए । किन्तु वेन ने मुनियों का अपमान किया ।

वेन की मृत्यु ! Death of Wayne!

 विपरीत बुद्धि होने के कारण वेनअत्यंत पापी और कुमार्गगामी हो गया।

उसका पुण्य क्षीण हो चुका था। मुनियों की विनय पूर्वक प्रार्थना भी उसने नहीं सुनी।

तब मुनियों ने क्रोध में आकर उसे मारने का निश्चय कर लिया।

श्रीहरी की निंदा करने से पहले से ही वह मृत हो चुका था। वेन को उन्होंने अपनी हुंकारों से ही समाप्त कर दिया।

राजा वेन की कथा श्रीमद्भगवत कथा चतुर्थ स्कंध कि शिक्षाप्रद कथा है।

राजा वेन का वंश नष्ट नहीं होना चाहिए। ऐसा निश्चय कर उन्होंने मृत राजा की जांघ को बड़े जोर से मथा ।

उसमें से एक बौना पुरुष उत्पन्न हुआ। वह कलि के समान काला था ।उसके सभी अंग खासकर भुजाएं बहुत छोटी थी।

निषाद का जन्म! Birth of Nishad!

उसके जबड़े बहुत बड़े, टांगे छोटी, नाक चपटी ,नेत्र लाल केश तांबे के रंग के थे ।

उसने बड़ी दीनता और नम्र भाव से पूछा; कि मैं क्या करूं।

ऋषियों ने कहा निषिद (बैठ जा)। इसी से वह निषाद कहलाया ।

उसने जन्म लेते ही राजा वेन के भयंकर पापों को अपने ऊपर ले लिया।

इसलिये निषाद भी हिंसा लूटपाट आदि पाप कर्मों में रहते हैं।

अतः वे गांव और नगर में ना रह कर वन और पर्वतों में निवास करते हैं।

7- महाराज पृथु का चरित्र ! The character of King Prithu!

इसके बाद ब्राह्मणों ने पुत्र हीन राजा वैन की भुजाओं का मंथन किया ।

उससे एक स्त्री और पुरुष का जोड़ा उत्पन्न हुआ। जिनका नाम पृथु और अर्चि हुआ।

पृथु के रूप में साक्षात श्रीहरि के अंश ने अवतार लिया। अर्चि के रूप में श्री लक्ष्मी जी प्रकट हुई।

ब्राह्मणों ने महाराजा पृथु का राज्याभिषेक करके उन्हें प्रजा का रक्षक घोषित किया ।

इन दिनों पृथ्वी अन्न हीन हो गई थी । भूख के कारण प्रजाजनों के शरीर सूखकर कांटे हो गए थे ।

उन्होंने अपने स्वामी पृथु से स्वयं के जीविकोपार्जन हेतु प्रार्थना की।

पृथ्वी पर क्रोध! Rage on Earth!

प्रजा का करुण क्रंदन सुनकर महाराजा पृथु ने अन्नाभाव का कारण मालूम किया ।

पता चला कि पृथ्वी ने स्वयं ही अन्न एवं औषधियों को अपने भीतर छुपा लिया है।

ऐसा अनुमान लगा महाराजा पृथु ने पृथ्वी को लक्ष्य बनाकर अपना बाण चढ़ाया।

उन्हें इस प्रकार शस्त्र उठाए देख पृथ्वी काँप उठी और गौ का रूप धारण करके भागने लगी।

जहां-जहां पृथ्वी भागती गई वहां वहां महाराजा पृथु उसके पीछे लगे रहे।

तब वह अत्यंत भयभीत होकर दुखी मन से पीछे की ओर लौटी।

पृथ्वी ने कहा के महाराज मैं निरपराध हूं। अन्न, औषधियों के बीजों को दुराचारी लोग नष्ट कर रहे थे ।

अतः यज्ञ हेतु मैंने उन बीजों को अपने उदर में छुपा लिया था।

पृथ्वी का दोहन! Exploit the earth!

किंतु अब अधिक समय होने से वे बीज मेरे उदर में क्षीण हो रहे हैं।

अतः आप मेरे लिए बछड़ा और दोहन का पात्र लाकर मेरा दोहन कर लें।

तथा पृथ्वी को समतल करके उस पर अन्न व औषधियों को उत्पन्न करें।

इससे महाराजा पृथु अत्यंत प्रसन्न हुए । पृथ्वी के प्रति उन्हें पुत्री के समान प्रेम उतपन्न हो गया।

उन्होंने उसे अपनी कन्या के रूप में स्वीकार कर लिया। फिर पर्वतों को फोड़कर सारे भूमंडल को समतल कर दिया।(श्रीमद्भगवत कथा चतुर्थ स्कंध)

8-राजा पृथु की यज्ञशाला में श्रीविष्णु का आना! Srivishnu’s arrival in the Yajnashala of King Prithu!

राजा पृथु ने सौ अश्वमेध यज्ञ की दीक्षा ली। जिसे देखकर देवराज इंद्र को बहुत ईर्ष्या हुई ।

उन्होंने पृथु द्वारा किए जा रहे यज्ञ में विघ्न डालने की सोचा। विभिन्न रूपों को रखकर यज्ञ के घोड़े को हरण कर लिया।

उन्हें ऐसा करते हुए अत्रि ऋषि ने देखा । उन्होंने पृथुकुमार को इंद्र को मारने का आदेश दिया।

जिससे भयभीत होकर इंद्र यज्ञ का घोड़ा वहीं छोड़कर भाग गए।

 बार-बार इंद्र द्वारा यज्ञ का घोड़ा हरण कर लिए जाने से बहुत क्षुब्ध थे। अतः याजको ने इंद्र का वध करना चाहा।

तब ब्रह्मा जी ने वहां आकर उन्हें रोका और समझाया कि इंद्र भी श्री हरि का रूप है। अत: इनका वध मत करो।

ब्रह्मा जी के इस प्रकार समझाने पर महाराजा पृथु ने यज्ञ का आग्रह छोड़ दिया। और इंद्र से संधि कर ली।

यज्ञशाला में श्रीविष्णु का आना! Shrivishnu’s arrival in Yagyashala!

यह देखकर भगवान विष्णु को बहुत संतोष हुआ। वे पृथु की यज्ञशाला में इंद्र सहित उपस्थित हुए।

 भगवान श्री हरि के कहने पर महाराजा पृथु ने इंद्र को क्षमा कर दिया।

यज्ञशाला में उपस्थित सभी देवताओं का सत्कार किया। राजा पृथु ने अपनी प्रजा को भी विधिवत इच्छित वस्तुएं और उपहार प्रदान की।

धर्म और प्रेम का उपदेश दिया जिसे सुनकर देवता पितर और ब्राम्हण सभी पृथु की प्रशंसा करने लगे।

उसी समय वहां सूर्य के समान तेजस्वी सनकादिक ऋषि उपस्थित हुए।

जिन्हें देखकर महाराजा पृथु ने उनका सत्कार किया । एवं प्रसन्नता पूर्वक उनको स्थान दिया।

आत्मज्ञानी सनतकुमारजी से आत्म तत्व का उपदेश पाकर महाराजा पृथु ने उनकी स्तुति की।(श्रीमद्भगवत कथा चतुर्थ स्कंध)

9- पृथु का वनगमन व अर्चि का सती होना! Prithu’s exodus and archi sati!

इस प्रकार महा मनुष्य पृथु ने सभी के लिए अन्न आदि की व्यवस्था की ।

स्थावर जंगम सभी का प्रबंध करके धर्म का भली-भांति पालन किया । अंत में मोक्ष के लिए वन चले गए। 

 जहां उन्होंने योग साधना के द्वारा अपनी समस्त शक्तियों को ब्रह्म में लीन कर दिया।

महाराजा पृथु की पत्नी अर्चि पति को निश्चेष्ट अवस्था में पाकर विलाप करने लगी।

तथा पर्वत के ऊपर चिता बनाई ।स्वयं पति के साथ चिता की परिक्रमा कर अग्नि में प्रवेश कर गई ।

जिसे देख देवी देवता और देवांगनाए पुष्पों की वर्षा करने लगी।(श्रीमद्भगवत कथा चतुर्थ स्कंध)

प्रचेताओं की कथा! Legend of the pracheta’s

महाराजा पृथु के बाद उनके पुत्र परम यशस्वी विश्वजीत हुए। उनका अपने छोटे भाइयों पर बड़ा स्नेह था।

इसलिए उन्होंने चारों को एक-एक दिशा का अधिकार सौंप दिया ।

उनके वंशज (10 पुत्र) प्रचेताओं ने पिता की आज्ञा से संतान प्राप्ति हेतु घोर तप किया।

एक विशाल सरोवर में उन्हें भगवान शिव के दर्शन हुए । जहां भगवान शिव ने उन्हें योगादेश नाम का स्त्रोत सुनाया।

 मुनि का आचरण करते हुए एकाग्रता से स्तोत्र का अभ्यास करने कहा।

और इसी से तपस्या पूर्ण होने पर तुम्हें अभीष्ट फल प्राप्त होगा ऐसा कहा।(श्रीमद्भगवत कथा चतुर्थ स्कंध)

10- पुरंजन उपाख्यान! Puranjan anecdote!

 राजा प्राचीनबर्हि को नारद जी ने अध्यात्म विद्या का उपदेश दिया।

नारद जी ने कहा राजन पूर्व काल में पुरंजन नाम का एक बड़ा यशस्वी राजा था ।

उसका अविज्ञात नाम का एक मित्र था । कोई भी उसकी स्वभाव को समझ नहीं सकता था ।

राजा पुरंजन अपने रहने के लिए स्थान ढूंढते हुए पूरी पृथ्वी पर घूमते रहे। अंत में उदास होकर बैठ गए ।

एक दिन उसने हिमालय के दक्षिणी तटवर्ती शिखरों पर कर्मभूमि भारत खंड में नौ द्वारों का नगर देखा।

वह सब प्रकार के सुलक्षणों से संपन्न था(श्रीमद्भगवत कथा चतुर्थ स्कंध)

राजा पुरंजन ने उस अद्भुत वन में घूमते घूमते एक सुंदरी को देखा । उसके साथ 10 सेवक थे ।

एक पांच फन वाला सांप उसका द्वारपाल था । वही उसकी सब ओर से रक्षा करता था। यह देख राजा पुरंजन ने सुंदर स्त्री से पूछा तुम कौन हो?

और यहां किस प्रयोजन से आई हो? तुम्हारे साथ यह लोग कौन हैं?

स्त्री ने कहा मैं नहीं जानती कि मैं कौन हूं और कहां से आई हूं ।

किंतु मेरे साथ यह मेरे सखा है। जो आपकी समस्त इच्छाओं की पूर्ति करने में सक्षम है।

पुरंजन विवाह! Puranjan Vivah!

 राजा पुरंजन और उस स्त्री ने सौ वर्षों तक उस पुरी में वैवाहिक जीवन व्यतीत किया।

एक दिन राजा पुरंजन सेनापति के साथ पँचप्रस्थ नाम के वन में गया।

पुरंजन के शिकार से अनेकों जीव बड़े कष्ट के साथ प्राण त्यागने लगे ।

इस प्रकार शिकार के पश्चात जब पुरंजन वापस अपनी नगरी में आया। तो वहां उसने अपनी प्रिय पत्नी को पृथ्वी पर पड़े हुए देखा।

उस स्त्री के संग के कारण राजा पुरंजन का विवेक नष्ट हो चुका था ।

अतः इस अवस्था में रानी को देखकर वह अत्यंत व्याकुल हो गया ।(श्रीमद्भगवत कथा चतुर्थ स्कंध)

और तरह तरह से उसे मनाने लगा। पुनः रानी के साथ प्रसन्न होकर अनेकों वर्षों तक विहार करता रहा।

11- पुरंजन का अंत! End of Puranjan!

जब पुरंजन वृद्धावस्था को प्राप्त हो गया तब चन्डवेग नाम का गंधर्व आया।

जो तीन सौ साठ महाबलवान गंधर्व और गन्धरवियों के सहित आया था।

जो लगातार उसकी नगरी को लूटने लगे। जिससे राजा पुरंजन को बहुत चिंता हुई।

उसी समय काल की एक कन्या (जरा) वर की खोज में त्रिलोकी में भटक रही थी ।

जिसे कोई स्वीकार नहीं कर रहा था। तब यवनराज ने उसे अपनी सेना लेकर और भाई प्रज्वार के साथ पुरंजन पुरी में भेजा।

कलकन्या(जरा) का प्रवेश! Accession of Kalkanya (Zara)!

जहां यवनराज के सैनिक , प्रज्वार और काल कन्या के साथ पृथ्वी पर विचरने लगे।

काल कन्या के आलिंगन से पुरंजन की सारी श्री नष्ट हो गई ।

तथा अत्यंत विषयासक्त होने के कारण वह बहुत दीन हो गया । उसकी विवेक शक्ति नष्ट हो गई ।

अंत में वृद्धावस्था को प्राप्त होने पर वह स्त्री पुत्र आदि के लिए शोकाकुल होने लगा ।

उसी समय वहां यवनराज आ गए। बलपूर्वक खींचने पर राजा को अंत में भी अपनी स्त्री का ही ध्यान रहा।

इसीलिए दूसरे जन्म में वे विदर्भराज के यहां सुंदरी कन्या होकर उत्पन्न हुआ।(श्रीमद्भगवत कथा चतुर्थ स्कंध)

पुरंजन का स्त्री जन्म! Puranjan’s female birth!

 पांड्यनरेश महाराजा मलयध्वज ने समस्त राजाओं को जीतकर उसके साथ विवाह किया।

राजा मलयध्वज की पहली पुत्री व्रत शीला थी उसके साथ अगस्त ऋषि का विवाह हुआ।

अंत में राजा ने पृथ्वी को पुत्रों में बांटकर भगवान श्री कृष्ण की आराधना करने लगे ।

अपनी आत्मा को परम ब्रह्म में जोड़कर सर्वथा शांत हो गए। किंतु पति परायण विदर्भी तब भी अपने पति की सेवा करती रही।

जैसे ही उसे अपने पति की मृत्यु का आभास हुआ ,वह अत्यंत व्याकुल हो गई ।

इसी समय एक आत्मज्ञानी ब्राह्मण वहां आया और उसने उसे आत्मज्ञान कराया।(श्रीमद्भगवत कथा चतुर्थ स्कंध)

12- पुरंजन कथा का तातपर्य! Meaning of Puranjan Katha!

नाराद जी ने राजा प्राचीनबर्हि से कहा ; पुरंजन जीव है। जो अपने लिये एक अथवा बहुत पैरों वाला या बिना पैरों का शरीर रूप तैयार कर लेता है।

उस जीव का सखा जो अविज्ञात नाम से है वह ईश्वर है। जीव ने जब सुख दुख रूप सभी विषयों को भोगने की इच्छा की ।

तब उसने दूसरे शरीरों की अपेक्षा नौ द्वारों, दो हाथ और दो पैरों वाला मानव देह ही पसंद किया।

बुद्धि अथवा अविद्या को ही तुम पुरंजिनी नाम की स्त्री जानो। इसी के कारण देह और इंद्रिय, मैं व मेरेपन का भाव उत्पन्न होता है ।

और पुरुष इसी का आश्रय लेकर शरीर में इंद्रियों द्वारा विषयों को भोगता है।

आधिदेवीक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक ये तीन प्रकार के दुख है।

इनमें से किसी भी एक से जीव का सर्वथा छुटकारा नहीं हो सकता।

यदि कभी ऐसा दिखाई देता है, तो यह केवल तात्कालिक ही है।(श्रीमद्भगवत कथा चतुर्थ स्कंध)

नारदजी का प्राचीनबर्हि को उपदेश!Naradji’s preaching to the pracheenbarhi!

 नारद जी ने राजा प्राचीनबरही को जीव और ईश्वर के स्वरूप का दर्शन कराया ।

फिर वे विदा लेकर अपने सिद्ध लोक को चले गए।(श्रीमद्भगवत कथा चतुर्थ स्कंध)

इस आत्मज्ञान को जो पुरुष सुनेगा या सुनाएगा, वह शीघ्र ही लिंग भेद के बंधन से छूट जाएगा ।

इधर प्राचीनबरही के पुत्रों ने रुद्र गीत के द्वारा श्री हरि की स्तुति करके सिद्धि प्राप्त की । भगवान ने दर्शन दिए।

भगवान के दर्शन से प्रचेताओं का रजोगुण तमोगुण मर चुका था। वे भक्ति में लीन होकर भगवान से प्रार्थना करने लगे

प्रचेताओं ने ब्रह्मा जी के आदेश से मारिषा नामक कन्या से विवाह कर लिया ।

इसी के गर्भ से ब्रह्मा जी के पुत्र दक्ष ने पुनर्जन्म लिया। ( श्री महादेव जी की अवज्ञा के कारण अपना पूर्व शरीर त्याग कर जन्म लिया)।

इन्हीं दक्ष ने भगवान की प्रेरणा के अनुसार नवीन प्रजा  उतपन्न की।(श्रीमद्भगवत कथा चतुर्थ स्कंध)

13- प्रचेताओं की मुक्ति! Salvation of the prachetaa’s!

दस लाख वर्ष बीत जाने पर प्रचेताओं को विवेक हुआ । वे अपनी पत्नी मारिषा को पुत्रों के पास छोड़कर घर से चल पड़े ।

वे पश्चिम दिशा में समुद्र के तट पर जहां जांजलि मुनि ने सिद्धि प्राप्त की थी वहां पहुंचे ।

और उस आत्मविचार रूप ब्रह्म सत्व का संकल्प करके बैठ गए । उन्होंने प्राण मन वाणी और दृष्टि को वश में किया।

शरीर को निश्चेष्ट स्थिर व सीधा कर आसन को जीत, चित्त को विशुद्ध परब्रह्म में लीन कर दिया

ऐसी स्थिति में उन्होंने नारदजी को देखा। भगवान नारद ने प्रचेताओं को यह उपदेश दिया।

 “इस लोक में मनुष्य का वही जन्म वही कर्म वही आयु वही मन और वही वाणी सफल है। जिसके द्वारा श्रीहरि का सेवन किया जाता है।“(श्रीमद्भगवत कथा चतुर्थ स्कंध)

सारांश! Summary!

  • इस प्रकार श्रीमद् भागवत कथा पुराण का चतुर्थ अध्याय, भाग- 2 पूर्ण हुआ।
  • जिसमे बालक ध्रुव के परमपद को प्राप्त करना, राजा अंग व उनके दुष्ट पुत्र राजा वेन की कथा है।
  •  वेन के परमप्रतापी पुत्र राजा पृथु के चरित्र का वर्णन है।
  • इस अध्याय का सर्वोत्तम भाग पुरंजन उपाख्यान है। जिसमें नारदजी ने मानव शरीर व पुरंजनपुरी  का गम्भीर आत्मतत्व का उपदेश किया है ।
  • अंत में प्रचेताओं को मानव जीवन के उद्देश्य के संबंध में सारगर्भित उपदेश दिया है ।
  • जोकि सभी के जीवन के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण उपदेश होगा।
  • अंत तक यह आलेख पढ़ने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। 
  • पांचवा स्कन्ध अगले अंक में प्रस्तुत किया जाएगा। आपको यदि यह जानकारी अच्छी लगी हो तो दूसरों को भी शेयर अवश्य करें।
  • यदि किसी सुधार की आवश्यकता हो तो कमेंट कर अवश्य बताएं।

श्रीमद्भगवत कथा महात्म्य श्री ज्याकिशोरी जी 

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ऐसी ही अन्य जानकारियों के लिए पढें।

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✍️श्रीमती रेखा दीक्षित एडवोकेट सहस्त्रधारा रोड, देवधरा मण्डला।

यह आलेख श्रीमद्भागवत कथा चतुर्थ स्कंध से संकलित कर मेरे द्वारा संक्षिप्तीकरण किया गया है।

त्रुटियों को क्षमा करेंगे।

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56 thoughts on “श्रीमद्भगवत कथा चतुर्थ स्कंध

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