शब्द बन गए सेतु , (कविता संग्रह) कुमकुम गुप्ता (रचनाकार) भोपाल ! मन की अनुभूतियों को व्यक्त करने की सबसे समर्थ विधा कविता है। श्रीमती कुंकुम गुप्ता की कवितायें अपने अनुभूति जगत को सहज रूप से सम्प्रेषित करने में सफल रहीं हैं।
इनकी कवितायें अपने आस-पास के दर्द, पीड़ा और आज की संवेदनाहीन स्थितियों को महसूस कर आहत होने के बावजूद जीवन की सामाजिकता को स्वीकार कर अपनी जीवनास्था से ओत-प्रोत हैं।
वेदना की कवयित्री आधुनिक मीरा श्रीमती महादेवी वर्मा जिस प्रकार ‘नीर भरी दुख की बदली में भी वरदान मानती हैं। यह नारी-मन ही है जो समाज के थपेड़ों, हताशाओं से उबरकर एक आशा का दीप स्तम्भ जलाकर युगों से समाज को रोशनी देने का प्रयास कर रहा है।
संग्रह की कविताओं में से ‘कलम की धार में जहाँ उन्होंने कलम को अपनी ताकत माना है वहीं ‘यादें’ व पत्र’ में बचपन की नन्ही-मुन्नी स्मृतियों से वे प्रसन्नता व स्फूर्ति पाती हैं।
‘माँ’ ‘बेटी’ ‘माटी की महक’ ‘समझ’ ‘बदलाव’ ‘सोच’ कविताओं भावों की आंतरिक सच्चाई के अनुभव, मानव चरित्र के अर्न्तविरोध ने बहुत सशक्त और प्रबल यथार्थता के साथ बौद्धिक ईमानदारी प्रस्तुत किया है। कुंकुम निसंदेह समकालीन बोध सम्पन्न कवियित्री हैं।
शब्द बन गए सेतु (फागुनी दोहे )
प्रिय प्रवास पर होते हैं जब
याद आते उनके संवाद ।
रंगों की इस धूम धाम में
काश ! अभी हम होते साथ।
प्रियवर दूर जा बसे हो तो
मन हो जाता बड़ा अधीर ।
आतुर हो बस राह निहारूँ
हाथों में मैं लिये अबीर ।
नव पल्लव पा वृक्ष झूमते
गाते सुर में संगीत |
संगीत यही देना चाहें बस
देखो शिशिर गया है बीत।
सुंदरता को द्विगुणित करती
ज्यों माथे की रोली ।
सभी रंग फीके पड़ जाते
जब आती यह होली।
तेरे आ जाने से सचमुच
खुशियां हो जाती हैं दूनी ।
वरना गीत संगीत कोलाहल
में भी लगती दुनिया सूनी।
पृष्ठ अतीत के खुलते जाते
त्योहारों के आने से।
करु प्रतीक्षा देहरी पर आ
फागुन तेरे बहाने से।
इन्द्र धनुष के रंग चुराकर
फागुन मानो हुआ निहाल ।
सब रंगों में चटक रंग हैं
प्रिय के गालों लगा गुलाल ।
स्मृति धारा में बहते हैं।
जीवन के कितने ही रंग ।
फागुन की रंगीनी में भी
काश! अभी हम होते संग ।
तेरे संवादों की सरगम
पाल रही हूँ अपने मन में ।
दौड़ अचानक देहरी पर आ
संयम रख लेती हूँ क्षण में ।
मृदु मुस्कानें तिरछी चितवन
मन को कर देती हैं घायल।
प्रिये निहारूँ राह तुम्हारी
फागुन आया करने पागल ।
ढोलक झाँझ मजीरों के स्वर
मेरे मन को देते राहत।
देहरी पर फागुन है आया
आओ हम मिल कर लें स्वागत।
शब्द बन गये सेतु कुंकुम गुप्ता भोपाल
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