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वटसावित्री व्रत -(ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या) व्रत कथा व पूजनविधि

वटसावित्री- व्रत (ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या) ; हमारे देश में व्रत व त्यौहार बड़ी आस्था और श्रध्दा से मनाते हैं। जयेष्ठ मास का सबसे महत्वपूर्ण व्रत वटसावित्री है।

आज हम आपको वटसावित्री व्रत की संकल्प, पूजा विधि एवं कथा के बारे में बताएंगे।

वटसावित्री व्रत – वट देववृक्ष है। वटवृक्ष के मूल में भगवान् ब्रह्मा, मध्य में जनार्दन विष्णु तथा अग्रभाग में देवाधिदेव शिव स्थित रहते हैं।

देवी सावित्री भी वटवृक्ष में प्रतिष्ठित रहती हैं। इसी अक्षयवट के पत्रपुटक पर प्रलय के अन्तिम चरण में भगवान् श्रीकृष्ण ने बालरूप में मार्कण्डेय ऋषि को प्रथम दर्शन दिया था।

प्रयागराज में गङ्गा के तट पर वेणीमाधव के निकट अक्षयवट प्रतिष्ठित है। भक्तशिरोमणि तुलसीदास ने सङ्गम-स्थित इस अक्षयवट को तीर्थराज का छत्र कहा है ।

“संगमु सिंहासनु सुठि सोहा । छत्रु अखयबटु मुनि मनु मोहा ॥(रा०च०मा० २।१०५। ७)

इसी प्रकार तीर्थों में पञ्चवटी का भी विशेष महत्त्व है। पाँच वटों से युक्त स्थान को पञ्चवटी कहा गया है।

कुम्भज मुनि के परामर्श से भगवान् श्रीराम ने सीता एवं लक्ष्मण के साथ वनवास काल मे यहां निवास किया था।

हानिकारक गैसों को नष्ट कर वातावरण को शुद्ध करने में वटवृक्ष का विशेष महत्त्व है। वटवृक्ष की औषधि के रूप में उपयोगिता से सभी परिचित हैं।

जैसे वटवृक्ष दीर्घकाल तक अक्षय बना रहता है।

उसी प्रकार दीर्घ आयु, अक्षय सौभाग्य तथा निरन्तर अभ्युदय की प्राप्ति के लिए वटवृक्ष की आराधना (वटसावित्री व्रत) की जाती है।

इसके नीचे सावित्री ने अपने पतिव्रत से मृत पति को पुनः जीवित किया था। यह व्रत बट सावित्री के नाम किया जाता है। ज्येष्ठ मास के व्रतों में ‘वटसावित्री व्रत’ एक प्रभावी व्रत है।

इसमें वटवृक्ष की पूजा की जाती है। महिलाएं अपने अखण्ड सौभाग्य एवं कल्याण के लिये यह व्रत करती है।

सौभाग्यवती महिलाएँ श्रद्धा के साथ ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी से अमावास्या तक तोन दिनों का उपवास रखती है।

वटसावित्री व्रत का संकल्प

त्रयोदशी के दिन वटवृक्ष के नीचे व्रत का इस प्रकार संकल्प लेना चाहिये-

मम वैधव्यादिसकलदोषपरिहारार्थ ब्रह्मसावित्रीप्रीत्यर्थ सत्यवत्सावित्रीप्रीत्यर्थं च वटसावित्रीब्रतमहं करिष्ये।

इस प्रकार संकल्प कर यदि तीन दिन उपवास करने की सामर्थ्य न हो तो त्रयोदशी को रात्रि भोजन, चतुर्दशी को अयाचित तथा अमावास्या को उपवास करके प्रतिपदा को पारण करना चाहिये।

वटसावित्री व्रत पूजन विधि

  • अमावास्या को एक बाँस की टोकरी में सप्तधान्य के ऊपर ब्रह्मा और ब्रह्मसावित्री तथा
  • दूसरी टोकरी में सत्यवान् एवं सावित्री को प्रतिमा स्थापित कर वट के समीप यथाविधि पूजन करना चाहिये।
  • साथ ही यम का भी पूजन करना चाहिये। पूजन के अनन्तर स्त्रियाँ वट की पूजा करती हैं तथा उसके मूल को जल से सींचती हैं।
  • वट की परिक्रमा करते समय एक सौ आठ बार या यथाशक्ति सूत लपेटा जाता है।
  • ‘नमो वैवस्वताय’ इस मन्त्रसे वटवृक्ष को प्रदक्षिणा करनी चाहिये।
  • अवैधव्यं च सौभाग्यं देहि त्वं मम सुनते। पुत्रान् पौत्रांच सौख्यं च गृहरणार्घ्यं नमोऽस्तु ते॥’ इस मन्त्रसे सावित्रीको अर्घ्य देना चाहिये ।
  • और वटवृक्षका सिंचन करते हुए निम्म्र प्रार्थना करनी चाहिये।
  • वट सिञ्चामि ते मूर्ख सलिलैरमृतोपमैः । यथा शाखाप्रशाखाभिर्वृद्धोऽसि त्वं महीतले ॥ तथा पुत्रैच पौत्रै सम्पन्न कुरु मां सदा ॥
  • चने पर रुपया रखकर बायने के रूप में अपनी सास को देकर आशीर्वाद लिया जाता है।
  • सौभाग्य-पिटारी और पूजा सामग्री किसी योग्य ब्राह्मण को दी जाती है।
  • सिन्दूर, दर्पण, मौली (नाल), काजल, मेहँदी, चूड़ी, माथेकी 7 बिन्दी, हिंगुल, साड़ी, स्वर्णाभूषण इत्यादि वस्तुएँ एक बाँस की टोकरी में रख कर दी जाती हैं।
  • यही सौभाग्य पिटारी के नाम से जानी जाती है।
  • सौभाग्यवती स्त्रियों का भी पूजन होता है। कुछ महिलाएँ केवल अमावास्या को एक दिन का ही व्रत रखती हैं।

वटसावित्री व्रत कथा

  • महिलाएं इस व्रत में सावित्री-सत्यवान की पुण्य कथा का श्रवण करती हैं।

कथा- एक समय की बात है कि मद्रदेश में अश्वपति नाम के महान् प्रतापी और धर्मात्मा राजा राज्य करते थे। उनके कोई संतान न थी।

पण्डितों के कथनानुसार राजा ने संतान हेतु यज्ञ करवाया। उसी के प्रताप से कुछ समय बाद उन्हें कन्या की प्राप्ति हुई, जिसका नाम उन्होंने सावित्री रखा।

समय बीतता गया। कन्या बड़ी होने लगी। जब सावित्री को वर खोजने के लिये कहा गया तो उसने द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को पतिरूप में वरण कर लिया।

इधर यह बात जब नारदजी को मालूम हुई तो वे राजा अश्वपति के पास आकर बोले कि आपकी कन्या ने वर खोजने में बड़ी भारी भूल की है।

सत्यवान् गुणवान् तथा धर्मात्मा अवश्य है, परंतु वह अल्पायु है। एक वर्ष बाद ही उसकी मृत्यु हो जायगी।

नारदजी की बात सुनकर राजा उदास हो गये। उन्होंने अपनी पुत्री को समझाया- ‘पुत्रि! ऐसे अल्पायु व्यक्ति से विवाह करना उचित नहीं है, इसलिये तुम कोई और वर चुन लो।’

इस पर सावित्री बोली-‘तात! आर्य कन्याएँ अपने पति का वरण एक ही बार करती हैं, अतः अब चाहे जो हो, मैं सत्यवान को ही वर रूप में स्वीकार करूंगी।’

सावित्री के दृढ़ रहने पर आखिर राजा अश्वपति विवाह का सारा सामान और कन्या को लेकर वृद्ध सचिव सहित उस वन में गये ।

जहाँ राजश्री से नष्ट, अपनी रानी और राजकुमार सहित एक वृक्ष के नीचे सुमत्सेन रहते थे । विधि-विधानपूर्वक सावित्री और सत्यवान का विवाह कर दिया गया।

वन में रहते हुए सावित्री सास-ससुर और पति की सेवा में लगी रही।

नारदजी के बतलाये अनुसार पति के मरणकाल का समय पास आया तो वह उपवास करने लगी।

नारदजी ने जो पति की मृत्यु का दिन बतलाया था, उस दिन जब सत्यवान् कुल्हाड़ी लेकर लकड़ी काटने के लिये वन में जाने को तैयार हुआ,

तब सावित्री भी अपने सास-ससुर से आज्ञा लेकर उसके साथ वन को चली गयी।

वन में सत्यवान् ज्यों ही पेड़ पर चढ़ने लगा उसके सिर में असह्य पीडा होने लगी। वह सावित्री की गोद में अपना सिर रखकर लेट गया।

थोड़ी देर बाद सावित्री ने देखा कि अनेक दूतों के साथ हाथ में पाश लिये यमराज खड़े हैं।

यमराज सत्यवान्‌ के अङ्गुष्ठप्रमाण जीव को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चल दिये।

सावित्री भी यमराज के पीछे-पीछे चल दी। सावित्री को आते देख यमराज ने कहा-

‘हे पतिपरायणे! जहाँ तक मनुष्य, मनुष्य का साथ दे सकता है, वहाँ तक तुमने अपने पति का साथ दे दिया। अब तुम वापस लौट जाओ।’

यह सुनकर सावित्री बोली- ‘जहाँ तक मेरे पति जायँगे, वहाँ तक मुझे जाना चाहिये। यही सनातन सत्य है।’

यमराज ने सावित्री की धर्मपरायण वाणी सुनकर वर माँगने को कहा। सावित्री ने कहा- ‘मेरे सास-ससुर अन्धे हैं, उन्हें नेत्र-ज्योति दें।’

यमराज ने ‘तथास्तु’ कहकर उसे लौट जाने को कहा,

किंतु सावित्री उसी प्रकार यम के पीछे-पीछे चलती रही। यमराज ने उससे पुनः वर माँगने को कहा।

सावित्रीने वर माँगा-‘मेरे ससुर का खोया हुआ राज्य उन्हें वापस मिल जाय।’

यमराज ने ‘तथास्तु’ कहकर उसे लौट जाने को कहा, परंतु सावित्री अडिग रही।

सावित्री की पति- भक्ति और निष्ठा देखकर यमराज अत्यन्त द्रवीभूत हो गये।

उन्होंने सावित्री से एक और वर माँगने के लिये कहा।

तब सावित्री ने यह वर माँगा कि ‘मैं सत्यवान के सौ पुत्रों की माँ बनना चाहती हूँ। कृपाकर आप मुझे यह वरदान दें।’

सावित्री की पति-भक्ति से प्रसन्न हो इस अन्तिम वरदान को देते हुए यमराज ने सत्यवान को अपने पाश से मुक्त कर दिया और वे अदृश्य हो गये।

सावित्री अब उसी वटवृक्ष के पास आयी। वटवृक्ष के नीचे पड़े सत्यवान के मृत शरीर में जीव का संचार हुआ और वह उठकर बैठ गया।

सत्यवान के माता-पिता की आँखें ठीक हो गयीं और उनका खोया हुआ राज्य वापस मिल गया। इससे सावित्री के अनुपम व्रत की कीर्ति सारे देश में फैल गयी।

इस प्रकार यह मान्यता स्थापित हुई कि सावित्री की इस पुण्य कथा को सुनने पर तथा पति-भक्ति रखने पर महिलाओं के सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण होंगे और सारी विपत्तियाँ दूर होंगी।

प्रत्येक सौभाग्यवती नारी को वटसावित्री का व्रत रखकर यह कथा सुननी चाहिये।

आशा है आपको यह वटसावित्री व्रत कथा व पूजाविधि से सम्बन्धी लेख अच्छा लगा होगा।

अपना कीमती समय निकालकर इस लेख को पढ़ने के लिए आपका धन्यवाद।

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One thought on “वटसावित्री व्रत -(ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या) व्रत कथा व पूजनविधि

  1. बहुत सुंदर जानकारी…. बहुत धन्यवाद..🙏👑❣️💐

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