भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को सिद्धि विनायक चतुर्थी के नाम से जाना जाता है। इसमें किया गया दान, स्नान, उपवास और अर्चन गणेशजी की कृपा से सौ गुना हो जाता है,
परंतु इस चतुर्थी को चंद्रमा के दर्शन नहीं करना चाहिए , वरना मिथ्या कलंक लगता है। अतः यह सावधानी जरूर रखें कि इस तिथि को चन्द्रदर्शन न हों।
यदि दैववश चन्द्रदर्शन हो जाय तो इस दोष के शमन के लिये निम्न मन्त्रका पाठ करना चाहिये-
“सिंहः प्रसेनमवधीत्सिंहो जाम्बवता हतः । सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः ॥ (विष्णुपुराण 4 | 13 | 42)“
और स्यमन्तक मणि की कथा सुनना चाहिये। यह कथा इस प्रकार है।
भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को सुने स्यमन्तक मणि की कथा!
द्वापर युग में द्वारकापुरी में सत्राजित् नामक एक यदुवंशी रहता था। वह भगवान् सूर्यका परम भक्त था।
उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् सूर्य ने उसे स्यमन्तक नाम की मणि दी, जो सूर्यके समान ही कान्तिमान् थी।
वह मणि प्रतिदिन आठ भार सोना देती थी तथा उसके प्रभावसे सम्पूर्ण राष्ट्रमें रोग, अनावृष्टि, सर्प, अग्नि, चोर
तथा दुर्भिक्ष आदिका भय नहीं रहता था।
एक दिन सत्राजित् उस मणि को धारण कर राजा उग्रसेन की सभा में आया,
उस समय मणि की कान्ति से वह दूसरे सूर्य के समान दिखायी दे रहा था।
श्रीकृष्ण की इच्छा थी कि यदि यह दिव्य रत्न राजा उग्रसेन के पास रहता तो सारे राष्ट्र का कल्याण होता,
इधर सत्राजित को यह मालूम हो गया कि श्रीकृष्ण मेरी मणि ले लेना चाहते हैं।
अत: उसने वह मणि अपने भाई प्रसेन को दे दी।
स्यमन्तक मणि की कथा
एक दिन प्रसेन उस मणिको गलेमें बाँधकर घोड़े पर सवार हो वन में आखेट के लिये गया,
वहाँ एक सिंह द्वारा मारा गया। प्रसेन के न लौटने पर यादवों में कानाफूसी होने लगी
कि श्रीकृष्ण इस मणि को ले लेना चाहते थे, अतः उन्होंने ही प्रसेन को मारकर मणि ले ली होगी।
उधर वन में मुँह में मणि दबाये हुए सिंह को ऋक्षराज जाम्बवान ने देखा ,
तो उसे मारकर स्वयं मणि ले ली और जाकर बच्चे को खेलने के लिये दे दी, जिससे वह खेला करता था।
इधर द्वारका में उठते हुए लोकापवाद के स्वर श्रीकृष्ण के कानों तक पहुँचे,
वे राजा उग्रसेन से परामर्श कर कुछ साथियों को ले, प्रसेन के घोड़े के खुरों के निशान को देखते हुए वन में पहुँचे।
वहाँ उन्होंने घोड़े और प्रसेन को मृत पड़ा पाया । तथा उनके पास में सिंह के पैरों के निशान देखे।
उन चिह्नों का अनुसरण करते हुएआगे जाने पर उन्हें सिंह भी मृत पड़ा मिला।
वहाँ से ऋक्षराज जाम्बवान के पैरोंके निशान देखते हुए वे लोग जाम्बवान् की गुफा तक पहुँचे।
श्रीकृष्णने कहा कि अब यह तो स्पष्ट हो चुका है कि घोड़े सहित प्रसेन सिंह द्वारा मारा गया है,
परंतु सिंह से भी बलवान् कोई है, जो इस गुफा में रहता है। मैं अपने पर लगे लोकापवाद को मिटाने,
इस गुफा में प्रवेश करता हूँ । और स्यमन्तक मणि लाने की चेष्टा करता हूँ।
यह कहकर श्रीकृष्ण उस गुफा में घुस गये।
श्रीकृष्ण व जाम्बवान का युद्ध
वहाँ उनका ऋक्षराज जाम्बवान से इक्कीस दिनों तक घोर संग्राम हुआ।
अन्त में शिथिल अङ्गों वाले जाम्बवान ने भगवान को पहचान कर उनको प्रार्थना करते हुए कहा- हे प्रभो!
आप ही मेरे स्वामी श्रीराम हैं, द्वापर में आपने इस रूप में मुझे दर्शन दिया। आपको कोटि-कोटि प्रणाम है।
नाथ! मैं अर्घ्यस्वरूप अपनी इस कन्या जाम्बवती और यह मणि स्यमन्तक आपको देता हूँ,
कृपया ग्रहणकर मुझे कृतार्थ करें तथा मेरे अज्ञानको क्षमा करें।
जाम्बवान से पूजित हो श्रीकृष्ण स्यमन्तक मणि लेकर जाम्बवती के साथ द्वारका आये।
वहाँ उनके साथ गये यादव गण बारह दिन बाद ही लौट आये थे।
द्वारका में यह विश्वास हो गया कि श्रीकृष्ण गुफा में मारे गये,
किंतु श्रीकृष्ण को आया देख सम्पूर्ण द्वारका में प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी।
श्रीकृष्ण ने सब यादवों से भरी हुई सभा में वह मणि सत्राजित को दे दी।
सत्राजित ने भी प्रायश्चित्त स्वरूप अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह श्रीकृष्ण से कर दिया।
इस स्यमन्तक मणि का आख्यान जो कोई पढ़ता या सुनता है,
उसे भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चन्द्रदर्शन के दोष से मुक्ति मिलती है।
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