देवयानी हिंदी कविता अवमानना ; श्री वासुदेव प्रसाद खरे ! इस काव्य की मूल कथा पौराणिक है, पर कवि ने उसे नया आशय देने की चेष्टा भी की है। आरम्भ के सर्ग देवयानी और शर्मिष्ठा, दो युवतियों के कलह से सम्बन्धित हैं; ऐसी युवतियाँ जो क्रमशः ब्राह्मण और क्षत्रिय कुलों में उत्पन्न हुई हैं और जिनके द्वन्द्व में ब्राह्मबल और क्षात्रशक्ति, बौद्धिक और शारीरिक क्षमताओं के द्वन्द्व का आभास है।
ये आरम्भिक सर्ग प्राचीन इतिहास की भूमि पर खड़े हुए हैं, परन्तु इनके पश्चात् यह काव्य इतिहास की इतिवृत्तात्मकता को छोड़कर ययाति, देवयानी और शर्मिष्ठा- एक पुरुष और दो नारियों के सम्भावनापूर्ण चरित्रों से सम्बद्ध हो गया है और उक्त सम्भावनाओं का बहुमुखी उपयोग पुरुष और नारी चरित्रों की आकर्षण-विकर्षणमयी बहुरूपता का अनुलेखन कवि ने निर्द्वन्द्वभाव से किया है।
फलतः इस काव्य में यौवन के आगमन से लेकर उतार तक और नारी की तन्मयता से लेकर उसकी भीषण असूया और ईर्ष्या के वर्णन अप्रतिहत रूप से आए हैं। आगे चलकर ययाति की वृद्धावस्था, उसकी तृप्त लालसा, उसकी अधोगति और क्लेशों का न भी उतने ही विस्तार से किया गया है। प्रस्तुत है देवयानी हिंदी कविता अवमानना !
देवयानी हिंदी कविता अवमानना ; श्री वासुदेव प्रसाद खरे !
मिटने के अधिकारों पर भी
हाय नहीं अपना अधिकार
ढूँढ़ न पाई मैं क्रन्दन के
काँटों पर फूलों का हार।
मुझ पर जाने क्यों हँसती हैं
चन्द्रदेव की ये मुस्कानें ।
किरणों की ये मीठी नजरें
मार रहीं क्यों मुझ पर ताने ।
बन्द कमल पर फिसल- फिसल
जाते हैं तेरे श्वेत निशाने,
अपनी मूक निराशाओं की
बनी हुई मैं कारागार !!
बरस न पायेंगी अब मेरी
तिक्त मोतियों की बरसातें ।
पिघल न पायेंगी अब मेरी
ठंडी-सी बर्फीली रातें ॥
लौट न पायेंगी अब मेरी
मधुर मधुर शर्मीली रातें,
एक लहर ने ही यह सारा
लील लिया है पारावार !
किन्तु न छोडूंगी मैं तो अब
अपनी नाग फनी के बन्धन
करती सदा रहूंगी मैं अब
अहे ! जहर का ही अभिनन्दन,
पानी की इस टौंस चिता पर
अब न् चढ़ेगा रोली चंदन
अहे हिमाचल कभी पिघलकर
स्वयं करेगा क्या अभिसार
बैठी श्वेत वसन में लिपटी
दॄढ विश्वास त्याग की काया।
चाँदी की बरसातों में वह
डूबी-सी सोने की छाया ।।
खड़े ठूंठ-से हैं उपवन के
चाँदी के पानी में डूबे
फीके रेशम के आसन पर
रह-रह चन्द्रकिरण-मन ऊबे॥
कोमल श्वेत बर्फ की नारी
शीतलता में बस धोई-सी।
बहते जिसके कभी न आँसू
पर मन के अन्दर रोई-सी॥
खड़ा हुआ चट्टानों का दृढ
पौरुष अपना भाल झुकाये।
ज्यों पूजा की ज्योति देखकर
हिम का तुंग पिघल-सा आये।
माँ के स्नेहिल उपालम्भ के
आगे ज्यों अपराध खड़ा हो।
बालू के आगे ज्यों परवश
पौरुष को ललकार रही हैं।
माँ की मौन तपस्या अपनी
स्रोत स्वयं निर्बाध अड़ा हो ।
आँखों की किरणें ही अपलक
कृति को ही धिक्कार रही है।
खड़ा न रह पाया वह ऐसे
मुड़कर भाग गया आगे से।
श्वेत हिमाचल बँधा हुआ ज्यों
मौन तपस्या के धागे से ||
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